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Sunday 27 July 2014

ऐसे ही व्यक्ति मुनि या योगी बन पाते है। तांत्रिक पंच मकार का अर्थ - वाम मार्ग के तंत्र में इसका विशेष स्थान है, इसके बिना किसी भी प्रकार की साधना पूरी हो ही नहीं सकती और ये पंचमकार मद्य, मांस , मीन , मुद्रा और मैथुन है, ये पांचों प्रक्रियाएं साधन विशेष रूप से विधि-विधान सहित संपन्न होने चाहिए तभी साधक को तांत्रिक साधना में सफलता प्राप्त होती है !....


ऐसे ही व्यक्ति मुनि या योगी बन पाते है।
तांत्रिक पंच मकार का अर्थ -
वाम मार्ग के तंत्र में इसका विशेष स्थान है, इसके बिना किसी भी प्रकार की साधना पूरी हो ही नहीं सकती और ये पंचमकार मद्य, मांस , मीन , मुद्रा और मैथुन है, ये पांचों प्रक्रियाएं साधन विशेष रूप से विधि-विधान सहित संपन्न होने चाहिए तभी साधक को तांत्रिक साधना में सफलता प्राप्त होती है !
कुलार्णव तंत्र के अनुसार
मद्य मांस च मीनं मुद्रा मैथुनमेव च।
मकार पंचकं प्रदुर्योगिनाम मुक्तिदाय्काम।।
अर्थात मद्य, मांस , मीन , मुद्रा और मैथुन
यह पांच मकार ही योगियों को पूर्ण सिद्धि एवं मुक्ति प्रदान करने वाले है। यदि सामान्य रूप से इसकी व्याख्या की जाये तो यह तो एक असम्भव सी स्थिति स्पष्ट होगी और इस प्रकार की क्रियाओं को उपयोग मे लेन वाला व्यक्ति असामान्य व्यक्ति ही माना जायेगा क्योंकि मध और मांस तामसिक प्रकृति के पदार्थ है, और इनके प्रयोग से तमोगुण की वृद्धि होती है। जब की तंत्र के ज्ञान से तो सिद्धि और मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए। यही मूल बिंदु है जिसकी व्याख्या आवश्यक है। केवल शाब्दिक अर्थों पर जाकर तंत्र शास्त्र को गलत द्रष्टि से देखना या दुराचार का मार्ग मानना उचित नहीं है। थोड़े से फेर बदल के साथ अलग अलग ग्रंथो मे जो पंच मकार की व्याख़्या क़ी गयी है उसका सार प्रस्तुत है -
मद्य या मदिरा -
"योगिनी तंत्र " में स्पष्ट कहा गया है की मदिरा का तात्पर्य है शक्तिदायक रस अर्थात शिव और शक्ति के संयोग से जो महातत्व उत्पन्न होता है वही मदिरा है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार गुड और अदरक का मेल ब्राह्मण के लिए मदिरा है , कांसे के पात्र में नारियल का पानी क्षत्रिय के लिय और कांसे के पात्र में शहद वैश्य के लिए सुरा अर्थात मदिरा कही गई है, जहाँ किसी तंत्र साधना में सुरा का प्रयोग हो , वहां इस प्रकार की सुरा विशिष्ट वर्ण वाले व्यक्ति को प्रयोग में लानी चाहिय !
जिसके पीने से अशुभ कर्मों का प्रवाह नष्ट हो जाता है तथा साधक परम तत्व, ज्ञान प्राप्य कर मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करता है, ऐसे ही व्यक्ति मुनि या योगी बन पाते है।
मांस
मांस तांत्रिक साधनाओ में बलि स्वरुप प्रयोग मे लाया जाता है। मूल रूप साधना में पशु या मानव बलि का उल्लेख ही नहीं है। मांस का तात्पर्य है शरीर का तत्व और इसी का साधना के दौरान यज्ञ मे बलि स्वरुप अर्पित करना उचित है "योगनी तंत्र " में लिखा है 
माँ शब्दाद रसना ज्ञेया संद्शान रसनाप्रियां।
एतद यो भक्षयेद देवी स एव मांससाधक:।।
अत: यह स्पष्ट है की बलि देना और तांत्रिक साधनों में मांस का भक्षण करना आवश्यक नहीं है यह तो उन पाखंडी, ढोगी और ठग तांत्रिको ने अपने स्वाद की पूर्ति करने हेतु मांस का भक्षण करना आवश्यक बना दिया। यह तो तांत्रिकों द्वारा शास्त्रों मे प्राचीन ऋषियों द्वारा दिए गए मन्त्रों के अर्थों का अनर्थ कर मांस को ही आवश्यक मान लिया गया है , इसी कारण तो आज भी श्रेष्ठ कार्यो में , देवी पूजन में नारियल को होम किया जाता है और वही पूर्ण सिद्धिदायक है।
मीन-मत्स्य
मीन अर्थात मछली तांत्रिको क्रियाओं के मंत्रो मे विशेष रूप से आई है और इसका शाब्दिक अर्थ कर इसे केवल मछली मन लिया गया है। मूल रूप से इसका तात्पर्य है, की जब हम किसी प्रकार की तांत्रिक किया संपन्न करते हैं तो छ: प्रकार की मछलियों अर्थात अहंकार , दंभ, मद, पशुता , मत्सर, द्धेष, शरीर में विचरण करने वाले इन छ: प्रकार के दोषों को नष्ट कर , अपने आपको शुद्ध कर देवता की आराधना में समर्पित कर देना है। केवल मछली खाने से ही यदि तांत्रिक क्रियायां संपन्न हो जाये तो शायद आज आधे से अधिक संसार तांत्रिक होता। तंत्र शास्त्र में तो लाक्षणिक शब्द दिए होते है , इनकी व्याख्या कर मूल भाव समझने की आवश्यकता है। साधक का शरीर भी जल -स्वरुप ही है और इसमें भी श्वास और प्रश्वास दो मत्स्य है। जो साधक प्राणायाम के द्वारा उसको रोक कर कुम्बक करते है, वे ही मत्स्य साधक है। यदि साधक अपनी इंद्रियां को वश मे कर सकता है , तभी वह वशीकरण क्रियाओं में सिद्ध हो सकता है। कुलार्ण तंत्र के अनुसार जहाँ -जहाँ तांत्रिक क्रियाओं मे मत्स्य का विधान है, वहा वैगन , मूली अथवा पानी-फल (नारियल ) को अर्पित करना चाहिए और हवन मे भी इन पदार्थों को अर्पित करना चाहिए , न की जीवित मछली को।
मुद्रा
मुद्रा का केवल उपासनाओं और साधनाओ में ही नहीं , अपितु अन्य रूप से भी विशेष महत्त्व है , मुद्रा का तात्पर्य आंतरिक भावों को प्रकट करना है, साधना काल मे साधक जो साधना कर रहा है , उस समय अपने मन के भावों को अपने इष्ट से वार्ता हेतु किस रूप से प्रकट करता है क्योकि ह्रदय और मन के भावों को बाह्य अंगों द्वारा प्रकट किया जा सकता है और जब हाथो, उँगलियों और पैरों की सहायता से ये मुद्राए बनाई जाती है, तो ये मुद्राए आंतरिक भावो का रूप ले लेती है, साधनाओ मे प्रत्येक प्रकार के लिए अलग -अलग मुद्राएँ है।
मैथुन
मैथुन का तात्पर्य है मिलन या संभोग , इस संभोग प्रक्रिया का प्रत्येक तंत्र साधना मे विशेष स्थान है लेकिन क्या संभोग का तात्पर्य स्त्री और पुरुष का मिलन ही है ? क्या तांत्रिक प्रक्रियाओं में स्त्री का उपयोग अनिवार्य है ? उत्तर है - जी नहीं।
स्त्री का तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति है जो भीतर स्थित है और इसका स्थान मूलाधार है। सहस्त्रार में शिव का स्थान है इस शिव और शक्ति के मिलन को ही मैथुन कहा गया है।
साधना की प्रक्रिया द्वारा अपने शरीर तत्व को उस स्थिति तक पंहुचा देना की शक्ति -तत्व पूर्ण रूप से प्राप्त हो जाय वही वास्तविक मैथुन है !
मूल रूप से पुष्प लताएँ ही स्त्री स्वरूप है और जब इनका समर्पण साधना मे किया जाता है तो वह स्त्री तत्व का समर्पण ही है। शरीर का विलास प्रिय होना तंत्रोक्त मैन्थुन नहीं है बल्कि पराशक्ति -तत्व को प्राप्त कर अपने भीतर के शिव तत्व से विलास रस का संगम ही पूर्ण मैथुन है। इसलिए शुद्ध तंत्र सदनों में तथा पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने हेतु विभिन्न प्रकार के पुष्पों का प्रयोग विशेष रूप से करना चाहिए।
साधना के दौरान मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखना चाहिए। मंत्र-साधक के बारे में यह बात किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि वो किस मंत्र का जप करता है या कर रहा है।
हमारे पुराणों में मंत्रों की असीम शक्ति का वर्णन किया गया है। यदि साधना काल में नियमों का पालन न किया जाए तो कभी-कभी इसके बड़े घातक परिणाम सामने आ जाते हैं। प्रयोग करते समय तो विशेष सावधानी‍ बरतनी चाहिए। मंत्र आपकी वाणी, आपकी काया, आपके विचार को प्रभावपूर्ण बनाते हैं। इसलिए सही मंत्र उच्चारण ही सर्वशक्तिदायक बनाता है। मंत्र उच्चारण की जरा-सी त्रुटि हमारे सारे किये -कराए पर पानी फेर सकत‍ी है। इसलिए गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन साधक को अवश्‍य करना चाहिए।

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