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Wednesday 16 April 2014

इसी को इश्क़ कहते है।......"तेरे जमाल से रोशन है कायनाथ मेरी, मेरी तलाश तेरीइसी को इश्क़ कहते है।...... दिलकशी रहे बाकी"



जलते दीये से ही बुझे
दीये जलते हैं
यदि सतगुरु फल है तो हम बीज़ रूप हैं।
जो हमारा भविष्य है वो गुरु का वर्तमान है। हमें
जहां पहुंचना है गुरु वहाँ कब का पहुँच चुका है।
जो हमें पाना है गुरु उसे पा चुका है। यदि गुरु
प्रकाश का पुंज है तो हम अंधेरे में भटकती हुई
लहर हैं। इस धरती पर सतगुरु केवल हमारे लिए
ही मौजूद होता है क्योंकि उसे पाने के लिए कुछ
भी नहीं बचा है। ये उसकी कृपा है कि वो हमें
वो सब बताने और समझाने के लिए आता है
कि उसने कैसे ये परम पद पाया और और कैसे
वो पहुंचा है इस अवस्था तक। कहने का आशय ये
है कि गुरु एक जले हुए दीये कि भांति है और हम
सब बुझे हुए दीये हैं। बुझे हुए दीये को जलाने के
लिए उसे जले हुए दीये के करीब ले जाना पड़ता है
और करीब जाते जाते एक घड़ी ऐसी आती है
कि क्षण में जले हुए दीये कि ज्योति छलांग
लगाकर बुझे दीये को ज्योतिर्मय कर देती है।
इससे जले दीये पर कोई फर्क नहीं पड़ता अर्थात
उसकी ज्योति कम नहीं होती है और बुझे दीये
प्रकाशमान हो जाते हैं। जले दीये का कुछ
नहीं जाता लेकिन बुझे दीयों को बहुत कुछ मिल
जाता है। हजारों दीये हों सोने का, चाँदी का,
मिट्टी का या किसी और धातु का लेकिन जब
रोशन हो जाते हैं तो दीये तो हमें अलग अलग
दिखाई देते हैं लेकिन ज्योति सबकी एक
सी होती है और ज्योति को देखकर ये
नहीं बताया जा सकता है कि ये ज्योति फलां दीये
की है। सतगुरु अर्थात जले हुए दीये
की देशना (उपदेश) यही है कि हम सब बुझे हुए
दीयों की काया, रूप-रंग अथवा आकार चाहे
कैसा भी हो लेकिन हम सबके भीतर वो चैतन्य,
वो ज्योति एक ही है जो केवल तभी दृश्यमान
होती है, प्रकट होती है जब हम किसी ज्योतिर्मय
महामानव के निकट जाते हैं और उसके ज्योतिपुंज
पर ऐसे ही मँडराते हैं जैसे कोई परवाना, कोई
दीवाना बिना जान की परवाह किए शमा पर
मँडराता है। जानते हैं इसे क्या कहते हैं, मेरे
भाइयों इसी को इश्क़ कहते है। इसी इश्क़
को सत्संग कहते हैं।
"तेरे जमाल से रोशन है कायनाथ मेरी, मेरी तलाश
तेरीइसी को इश्क़ कहते है।...... दिलकशी रहे बाकी"
जय सतगुरु देव महाराज की ,

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