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Friday 25 April 2014

एक संत महापुरष आसन पर बैठे हुए थे । एक आदमी उनके पास आया ।....................

एक संत महापुरष आसन पर बैठे हुए थे । एक आदमी उनके पास आया । आकर प्रणाम किया । बड़ा खुश ! संत ने पूछा, क्या हुआ भाई,आप बड़े खुश लग रहे हो? कह्ता है,महाराज ! मै आस्तिक बन गया । संत जी बड़े हैरान हुए - आस्तिक बन गया ! इस से पहले संत कुछ कह्ते,वह व्यक्ति आपनी कहानी सुनाने लगा । कह्ता है - बहुत समय से मेरे बेटे की नौकरी नही लग रही थी । मै एक दिन हनुमान जी के मन्दिर मे गया । वहा मैने हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया कि अगर पन्द्रह दिन के अन्दर अन्दर मेरे बेटे की नौकरी लग गई,तो मै तुम्हे मानना शुरू कर दूंगा। आस्तिक बन जाऊगा । तुम्हारे मन्दिर मे भी आया करूगा । प्रभु ने मेरी सुन ली । पन्द्रह दिन के अन्दर ही मेरे बेटे की नौकरी लग गई । इस लिए मै आस्तिक बन गया हूँ ! यह बात सुनकर,संत जी ने उस व्यक्ति को समझाते हुए कहा, आप की आस्तिकता की चादर बहुत पतली है । आप के विश्वास के पीछे स्वार्थ की बैसखिया लगी हुई है । ऐसा विश्वास कभी भी लड़खड़ा कर गिर सकता है । इस लिए इस आधार पर परमात्मा को मानना ठीक नही। मेरी मानो तो आगे से कभी परमात्मा को अल्टीमेटम मत देना । पर यह तो स्वभाव सिद्ध है कि मनुष्य जिस काम मे एक बार सफल हो जाए,तो उसे दोबारा जरूर करता है । ऐसा ही हुआ । कुछ समय के बाद उस आदमी की पत्नी बीमार हो गई । उस ने सोचा कि क्यो ना फिर वही फार्मूला लगाया जाए । भगवान को चेतावानी दी जाए । जाकर फिर हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया - हनुमान जी ! अगर सात दिनो के अन्दर मेरी पत्नी ठीक नही हुई,तो मै आप को मानना छोड दूंगा। फिर से नास्तिक बन जाऊँगा। होता तो वही है जो विधाता ने लिखा हुआ था । पाचवे दिन ही उस की पत्नी मर गई । वह व्यक्ति फिर से नास्तिक बन गया । कहने का मतलब,उस का परमात्मा को मानना या ना मानना बस एक खेल था । अ:त जरूरत है कि हम तर्को वितर्को व अपनी धारणाओं के आधार पर परमात्मा को सिर्फ़ मानने तक ही सीमित न रहे । बल्कि एक पूर्ण गुरू की शरणागत होकर उस का दर्शन भी करे । उसे तत्व से जाने । तभी हमारा उस पर विश्वास अडिग होगा।

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