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Friday 25 April 2014

स्वामी विवेकानंद ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी को पूछा कि मुझे आप ईश्वर सिद्ध कर सकते हैं, ईश्वर है?


फिर तो दूर नहीं जाना है।
स्वामी विवेकानंद ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी को पूछा कि मुझे आप ईश्वर सिद्ध कर सकते हैं, ईश्वर है?

स्वामी विवकानद ने कहा-- क्या ईश्वर है? ??

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा, व्यर्थ की बात बंद करो। तुझे ईश्वर को जानना है, यह पूछ। ईश्वर है या नहीं, यह बात ही मत कर। 

तुझे जानना है? जना सकता हूं। अभी जानना है?
स्वामी विवेकानंद ने कहा -हां अभी इसी वक़्त ....

इतना सोचकर नहीं गये थे कि अभी जानना है। इतनी तैयारी करके भी न गये थे। यह तो कभी सोचा ही न था कि कोई इस तरह पूछेगा। 
स्वामी विवेकानंद ने ऐसा नहीं सोचा था, और बहुत मनीषियों के पास वह गये थे, जिज्ञासु थे। जहां खबर मिली कि कोई ज्ञानी है, वहीं गये। 

सब जगह खाली हाथ लौटे थे। 
चूंकि शब्द तो बहुत थे, लेकिन शब्दों से किसकी कब तृप्ति हुई! तुम भूखे हो और कोई भोजन की बातें करे, कैसे तृप्ति होगी? 

विवेकानंद भूखे थे। उनकी उत्सुकता विद्यार्थी की उत्सुकता नहीं थी, साधक की उत्सुकता थी। लौट आये जगह—जगह से। 

उसी तरह गये थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास भी। और मन में यह धारणा थी कि बेपढा—लिखा गंवार आदमी है; जब बड़े—बड़े पढ़े—लिखों के पास कुछ नहीं मिला…।यह गांव का गंवार स्वामी रामकृष्ण परमहंस , यह क्या उत्तर दे पायेगा! इस भाव से भरे गये थे। 

लेकिन बात उलटी हो गयी। गये थे रामकृष्ण को चौंकाने, खुद चौंक गये।

क्योंकि रामकृष्ण ने कहा : जानना है तुझे और अभी जानना है? अभी बता दूं इसी वक्त? 

और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें, रामकृष्ण उछले और अपने पैर को विवेकानंद की छाती से लगा दिया।

ये कोई ज्ञानियों के ढंग नहीं हैं, ये मस्तों के ढंग हैं। मगर मस्तों को ही पता है। पता है, इसीलिए तो मस्ती है।

इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें, रामकृष्ण उछले और अपने पैर को विवेकानंद की छाती से लगा दिया।

विवेकानंद बेहोश होकर गिर गये।

जब तीन घंटे बाद होश में आये, स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा : बोल, कुछ और प्रश्न बाकी बचे? 

जैसे किसी और लोक से लौटे हों! 

एक स्वाद लग गया। फिर दीवाने हो गये इस बे—पढ़े—लिखे पुरोहित के। फिर इसी के पीछे चक्कर काटने लगे। नहीं था इसके पास शास्त्र, नहीं था ज्ञान, नहीं थे सिद्धात, नहीं थीं बड़ी उपाधियां, नहीं था नाम कोई विश्वविख्यात। 

अट्ठारह रुपये महीने की छोटी—सी नौकरी थी दक्षिणेश्वर के मंदिर में पूजा—पाठ कर देने की। गरीब आदमी थे गांव का बे—पढ़ा—लिखा, थे दूसरी कक्षा तक पढ़ा थे ,संस्कृत नहीं आती थी। मगर विवेकानंद को कोई मोहित न कर सका, स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने मोहित कर लिए।

जहा अनुभव है परमात्मा का, वहां एक जीवित जादू है। लाख तुम तप करते रहो, तपश्चर्या करते रहो—धूप में, सर्दी में खड़े रहो, नग्न रहो, उपवास करो, व्रत करो; कितनी ही बहादुरी दिखाओ और कितना ही अपने को सताओ, कुछ भी न होगा।....

रहोगे गुरु के साथ, तो दिव्य राग जगेगा। प्राण झंकृत होंगे। जीवन नयी तरंगें लेगा, नयी करवटें लेगा। नये आयाम खुलेंगे। नयी ऊंचाइयां छुओगे। नयी गहराइयों में डुबकिया मारोगे। 

कहीं कोई गुरु मिल जाये, जिसके जीवन में तुम्हें अज्ञात की गंध का एहसास हो। जिसकी मौजूदगी में तुम्हें अनाहत का नाद अनुभव में आये। जिसके पास बैठकर हृदय मौन होने लगे, शांत होने लगे, ध्यान अपने से फलित होने लगे। तो फिर डुबकी मार लेना। फिर आगा——पीछा न करना। फिर सोच—विचार में मत उलझना। फिर क्षण— भर भी न गंवाना।
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जिस दिन जाग जाता है शिष्य, गुरु बिन बोले बोल जाता है, संदेशा दे जाता है।उपनिषद का अर्थ होता है. गुरु ‘के पास बैठ कर जो मिला, सिर्फ पास बैठकर जो मिला। कहा नहीं गया, बोला नहीं गया, बस पास बैठ कर जो मिला।

अगर एक बार गुरु के दर्पण में तुम्हारी झलक तुम्हें मिल गयी तो, पांचों इंद्रियों का जो पसारा था उसका निवारण हो गया।और जब एक दफे यह समझ में आ गयी बात कि मैं कौन हूं गुरु के दर्पण में देखकर पहचान ली यह बात कि मैं कौन हूं—फिर तो गुरु के दर्पण की भी कोई जरूरत नहीं। फिर तो आंख बंद करके भी तुम देख पाओगे कि तुम कौन हो। फिर तो दूर नहीं जाना है। 
लखै तो दूर न जाइ।

गुरु के दर्पण में थोड़ी अपनी परछाईं देख लो। थोड़ी अपने से पहचान करो। फिर जीवन रूपांतरित हो जाता है। फिर नहीं भटकन रह जाती, नहीं विषाद, नहीं संताप, नहीं आपा— धापी।

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