Advt

Wednesday 30 April 2014

श्री माँ वैभव लक्ष्मी माता व्रत कथा श्री माँ वैभव लक्ष्मी माता व्रत कथा - हिंदी.......


श्री माँ वैभव लक्ष्मी माता व्रत कथा
श्री माँ वैभव लक्ष्मी माता व्रत कथा - हिंदी
एक समय की बात है कि एक शहर में एक शीला नाम की स्त्री अपने पति के साथ रहती थी. शीला स्वभाव से धार्मिक प्रवृ्ति की थी. और भगवान की कृ्पा से उसे जो भी प्राप्त हुआ था, वह उसी में संतोष करती थी. शहरी जीवन वह जरूर व्यतीत कर रही थी, परन्तु शहर के जीवन का रंग उसपर नहीं चढा था. भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव और परोपकार का भाव उसमें अभी भी था. 

वह अपने पति और अपनी ग्रहस्थी में प्रसन्न थी. आस-पडौस के लोग भी उसकी सराहना किया करते थें. देखते ही देखते समय बदला और उसका पति कुसंगति का शिकार हो गया. वह शीघ्र अमीर होने का ख्वाब देखने लगा. अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लालच में वह गलत मार्ग पर चल पडा, जीवन में रास्ते से भटकने के कारण उसकी स्थिति भिखारी जैसी हो गई. बुरे मित्रों के साथ रहने के कारण उसमें शराब, जुआ, रेस और नशीले पदार्थों का सेवन करने की आदत उसे पड गई. इन गंदी आदतों में उसने अपना सब धन गंवा दिया. 

अपने घर और अपने पति की यह स्थिति देख कर शीला बहुत दु:खी रहने लगी. परन्तु वह भगवान पर आस्था रखने वाली स्त्री थी. उसे अपने देव पर पूरा विश्वास था. एक दिन दोपहर के समय उसके घर के दरवाजे पर किसी ने आवाज दी. दरवाजा खोलने पर सामने पडौस की माता जी खडी थी. माता के चेहरे पर एक विशेष तेज था. वह करूणा और स्नेह कि देवी नजर आ रही थ. शीला उस मांजी को घर के अन्दर ले आई. घर में बैठने के लिये कुछ खास व्यवस्था नहीं थी. शीला ने एक फटी हुई चादर पर उसे बिठाया. माँजी बोलीं- क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी वहाँ आती हूँ.' इसके बावजूद शीला कुछ समझ नहीं पा रही थी, फिर माँजी बोलीं- 'तुम बहुत दिनों से मंदिर नहीं आईं अतः मैं तुम्हें देखने चली आई.'

माँ जी के अति प्रेम भरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया. माँ जी के व्यवहार से शीला को काफी संबल मिला और सुख की आस में उसने माँ जी को अपनी सारी कहानी कह सुनाई। कहानी सुनकर माँ जी ने कहा - माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं. वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं. इसलिए तू धैर्य रखकर माँ लक्ष्मीजी का व्रत कर. इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा.' शीला के पूछने पर माँ जी ने उसे व्रत की सारी विधि भी बताई. माँ जी ने कहा- 'बेटी! माँ लक्ष्मी जी का व्रत बहुत सरल है. उसे 'वरदलक्ष्मी व्रत' या 'वैभवलक्ष्मी व्रत' कहा जाता है. यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है. वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है.'

शीला यह सुनकर आनंदित हो गई. शीला ने संकल्प करके आँखें खोली तो सामने कोई न था. वह विस्मित हो गई कि माँजी कहाँ गईं? शीला को तत्काल यह समझते देर न लगी कि माँजी और कोई नहीं साक्षात्‌ लक्ष्मीजी ही थीं.

दूसरे दिन शुक्रवार था. सबेरे स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला ने माँजी द्वारा बताई विधि से पूरे मन से व्रत किया. आखिरी में प्रसाद वितरण हुआ. यह प्रसाद पहले पति को खिलाया. प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया. उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं. उनके मन में 'वैभवलक्ष्मी व्रत' के लिए श्रद्धा बढ़ गई.

शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक 'वैभवलक्ष्मी व्रत' किया. इक्कीसवें शुक्रवार को माँजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की सात पुस्तकें उपहार में दीं. फिर माताजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- 'हे माँ धनलक्ष्मी! मैंने आपका 'वैभवलक्ष्मी व्रत' करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण किया है. हे माँ! मेरी हर विपत्ति दूर करो. हमारा सबका कल्याण करो. जिसे संतान न हो, उसे संतान देना. सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना. कुँआरी लड़की को मनभावन पति देना. जो आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना. सभी को सुखी करना. हे माँ! आपकी महिमा अपार है.' ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को प्रणाम किया.

व्रत के प्रभाव से शीला का पति अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा. उसने तुरंत शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए. घर में धन की बाढ़ सी आ गई. घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई. 'वैभवलक्ष्मी व्रत' का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियाँ भी विधिपूर्वक 'वैभवलक्ष्मी व्रत' करने लगीं —

प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम् श्री शिव अष्टकम...............


प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम्
श्री शिव अष्टकम
प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम् ।
भवद्भव्य भूतॆश्वरं भूतनाथं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 1 ॥
गलॆ रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकाल कालं गणॆशादि पालम् ।
जटाजूट गङ्गॊत्तरङ्गै र्विशालं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 2॥
मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महा मण्डलं भस्म भूषाधरं तम् ।
अनादिं ह्यपारं महा मॊहमारं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 3 ॥
वटाधॊ निवासं महाट्टाट्टहासं महापाप नाशं सदा सुप्रकाशम् ।
गिरीशं गणॆशं सुरॆशं महॆशं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 4 ॥
गिरीन्द्रात्मजा सङ्गृहीतार्धदॆहं गिरौ संस्थितं सर्वदापन्न गॆहम् ।
परब्रह्म ब्रह्मादिभिर्-वन्द्यमानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 5 ॥
कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भॊज नम्राय कामं ददानम् ।
बलीवर्धमानं सुराणां प्रधानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 6 ॥
शरच्चन्द्र गात्रं गणानन्दपात्रं त्रिनॆत्रं पवित्रं धनॆशस्य मित्रम् ।
अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 7 ॥
हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वॆदसारं सदा निर्विकारं।
श्मशानॆ वसन्तं मनॊजं दहन्तं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 8 ॥
स्वयं यः प्रभातॆ नरश्शूल पाणॆ पठॆत् स्तॊत्ररत्नं त्विहप्राप्यरत्नम् ।
सुपुत्रं सुधान्यं सुमित्रं कलत्रं विचित्रैस्समाराध्य मॊक्षं प्रयाति ॥

16 बी. सदी के मुसलमान सूफी फकीर बाबा "बुल्ले शाह" भी एक थे। जीवन के सत्य को कुच्छ इस तरह ब्यान करते हैं बाबा बुल्ले शाह .......


जीवन के सत्य को कुच्छ इस तरह ब्यान करते हैं
 16 बी. सदी के मुसलमान सूफी फकीर बाबा "बुल्ले शाह" भी एक थे। जीवन के सत्य को कुच्छ इस तरह ब्यान करते हैं बाबा बुल्ले शाह .......

' माटी कुदम करेंदी यार ' 

माटी कुदम करेंदी यार
वाह- वाह माटी दी गुलज़ार ।
माटी घोड़ा , माटी जोड़ा
माटी दा असवार । 
माटी माटी नूँ दौडावे
माटी दा खड़कार ।
माटी माटी नूँ मारण लग्गी
माटी दे हथियार ।
जिस माटी पर बहुती माटी
सो माटी हंकार ।
माटी बाग - बगीचा माटी
माटी दी गुलज़ार ।
माटी माटी नूँ वेखन आई
माटी दी ए बहार ।
हस खेड फिर माटी होवे
सौंदी पाऊं पसार । ......सूफी  फ़क़ीर  बाबा  बुलै  शाह। …… 

यह उपाय बहुत सुलभ, सरल एवं कारगर माना जाता है। दांत दर्द दांत दर्द कई कारणों से होता है ...............


यह उपाय बहुत सुलभ, सरल एवं कारगर माना जाता है।
दांत दर्द
दांत दर्द कई कारणों से होता है मसलन किसी तरह के संक्रमण से या डाईबिटिज की वजह से या ठीक ढंग से दांतों की साफ सफाई नहीं करते रहने से। यूँ तो दांत दर्द के लिए कुछ ऐलोपैथिक दवाइयां होती हैं लेकिन उनके बहुत हीं कुप्रभाव होते हैं जिसकी वजह से लोग चाहते हैं की कुछ घरेलू उपचार से इसे ठीक कर लिया जाये। अगर आप भी दांत दर्द से परेशान है एवं इसके उपचार के लिए प्रभावकारी घरेलू उपाय चाहते हैं तो नीचे दिए गए उपायों पर अमल करें।

हींग - जब भी दांत दर्द के घरेलू उपचार की बात की जाती है, हींग का नाम सबसे पहले आता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह दांत दर्द से तुरंत मुक्ति देता है। इसका इस्तेमाल करना भी बेहद आसन है। आपको चुटकी भर हींग को मौसम्मी के रस में मिलाकर उसे रुई में लेकर अपने दर्द करने वाले दांत के पास रखना है। चूँकि हींग लगभग हर घर में पाया जाता है इसलिए दांत दर्द के लिए यह उपाय बहुत सुलभ, सरल एवं कारगर माना जाता है।

लौंग -- लौंग में औषधीय गुण होते हैं जो बैकटीरिया एवं अन्य कीटाणु (जर्म्स, जीवाणु) का नाश करते हैं। चूँकि दांत दर्द का मुख्य कारण बैकटीरिया एवं अन्य कीटाणु का पनपना होता है इसलिए लौंग के उपयोग से बैकटीरिया एवं अन्य कीटाणु का नाश होता है जिससे दांत दर्द गायब होने लगता है। घरेलू उपचार में लौंग को उस दांत के पास रखा जाता है जिसमें दर्द होता है। लेकिन दर्द कम होने की प्रक्रिया थोड़ी धीमी होती है इसलिए इसमें धैर्य की जरुरत होती है।

प्याज -- प्याज (कांदा ) दांत दर्द के लिए एक उत्तम घरेलू उपचार है। जो व्यक्ति रोजाना कच्चा प्याज खाते हैं उन्हें दांत दर्द की शिकायत होने की संभावना कम रहती है क्योंकि प्याज में कुछ ऐसे औषधीय गुण होते हैं जो मुंह के जर्म्स, जीवाणु एवं बैकटीरिया को नष्ट कर देते हैं। अगर आपके दांत में दर्द है तो प्याज के टुकड़े को दांत के पास रखें अथवा प्याज चबाएं। ऐसा करने के कुछ हीं देर बाद आपको आराम महसूस होने लगेगा।

लहसुन -- लहसुन भी दांत दर्द में बहुत आराम पहुंचाता है। असल में लहसुन में एंटीबायोटिक गुण पाए जाते हैं जो अनेकों प्रकार के संक्रमण से लड़ने की क्षमता रखते हैं। अगर आपका दांत दर्द किसी प्रकार के संक्रमण की वजह से होगा तो लहसुन उस संक्रमण को दूर कर देगा जिससे आपका दांत दर्द भी ठीक हो जायेगा। इसके लिए आप लहसुन की दो तीन कली को कच्चा चबा जायें। आप चाहें तो लहसुन को काट कर या पीस कर अपने दर्द करते हुए दांत के पास रख सकते हैं। लहसुन में एलीसिन होता है जो दांत के पास के बैकटीरिया, जर्म्स, जीवाणु इत्यादि को नष्ट कर देता है। लेकिन लहसुन को काटने या पीसने के बाद तुरंत इस्तेमाल कर लें। ज्यादा देर खुले में रहने देने से एलीसिन उड़ जाता है जिससे बगैर आपको ज्यादा फायदा नहीं होता।

गरारे (गार्गल) करें
गरारे भी दांत दर्द दूर करने का एक अति उत्तम घरेलू उपाय है। हल्के गर्म पानी में एक चम्मच नमक डालकर गरारे करें। ऐसे नमकीन पानी से दिन में दो चार बार कुल्ला किया करें। नमक के संपर्क में आने के बाद मुंह के जर्म्स, जीवाणु एवं बैकटीरिया नष्ट हो जाते हैं जिसकी वजह से आपको दर्द से तुरंत राहत मिलती है।
सलाह 
जब दांत दर्द हो तब मीठे पदार्थ खाने या पीने से परहेज करें क्योंकि ये बैकटीरिया, जर्म्स, जीवाणु इत्यादि को और बढ़ावा देते है जिनसे आपकी तकलीफ और बढती है

जो जैसा करेगा उसे वैसा ही परिणाम मिलेगा कर्मों का फल हर हाल में मिलता है प्रकृति के एक विधान को संसार में आदर्श वाक्य की तरह कहा जाता है कि ...............


जो जैसा करेगा उसे वैसा ही परिणाम मिलेगा
कर्मों का फल हर हाल में मिलता है
प्रकृति के एक विधान को संसार में आदर्श वाक्य की तरह कहा जाता है कि जो जैसा करेगा उसे वैसा ही परिणाम मिलेगा, लेकिन आज व्यावहारिक जगत में कई लोग इससे सहमत नहीं होते। उनका मानना है कि हम देख रहे हैं अच्छे लोग परेशान हैं, गलत लोग मजे कर रहे हैं। परमात्मा भी जानता है कि मेरे भक्त यह सवाल जरूर उठाएंगे। इसलिए उन्होंने किए हुए का परिणाम देने के मामले में एक अवधि बनाई है। वे गलत और सही व्यक्ति दोनों को मौका देते हैं। गलत हो तो सुधर जाओ और यदि अच्छे हो तो हिम्मत मत छोड़ो। सुंदरकांड में श्रीराम और समुद्र का प्रसंग परमात्मा के इसी नियम को दर्शा रहा है।
श्रीराम ने समुद्र से मार्ग मांगा। समुद्र ने मार्ग नहीं दिया। तीन दिन बीत जाने पर श्रीराम ने घोषणा की कि बिना डराए कभी-कभी परिणाम नहीं आता। उन्होंने लक्ष्मण को आदेश दिया- लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कसानू।। धनुष-बाण लाओ, समुद्र को सोखना ही पड़ेगा। यह लक्ष्मण की पसंद का काम था, क्योंकि थोड़ी देर पहले वे विरोध कर चुके थे कि श्रीराम समुद्र से मार्ग न मांगें। लक्ष्मण के मन में वही द्वंद्व था जो अच्छे लोगों के मन में होता है कि समुद्र गलत कर रहा है फिर भी राम कुछ नहीं कर रहे, लेकिन तीन दिन की अवधि परमात्मा सबको देता है। तीन के आंकड़े का अर्थ है ज्ञान, कर्म और उपासना के अवसर हर एक के जीवन में ईश्वर द्वारा दिए जाएंगे। आप इन तीनों में कोई भी मार्ग चुन लें, अन्यथा फिर कुदरत धनुष-बाण उठा लेती है। इन्हीं तीन दिनों में अच्छे लोग विचलित हो जाते हैं और बुरे लापरवाह।

एक संत की सेवा में एक बणिया रोजाना भोजन लेकर आता था । उसे पुत्र की इच्छा थी । ..............


धैर्य की परीक्षा लेने हेतु
 एक संत की सेवा में एक बणिया रोजाना भोजन लेकर आता था । उसे पुत्र की इच्छा थी । एक दिन संत ने उसके धैर्य की परीक्षा लेने हेतु भोजन की थाली कुँएं में डाल दी । तब भी बणिये ने संतजी को कुछ भी नहीं कहा और दूसरी थाली में भोजन ले आया । संत उसकी श्रद्धा भक्ति देखकर प्रसन्न हो गये और उसे पुत्र प्राप्ति का वर दे दिया । सन्त के वचनों से सेठानी के पुत्र हो गया । ‘‘ज्यों घण घावां सार घड़ीजे झूठ सवै झड़जाई’’ जैसे घण की चोटों से लोहा शुद्ध हो जाता है, वैसे ही संतों की ताड़ना सहन करने से प्राणी के पाप और दोष दूर हो जाते हैं, तभी बणिये को पुत्र प्राप्ति हुई ।...................

अब आप सोचिए क्या बनना चाहते है संसार में तीन प्रकार के पुरुष है - देव , मनुष्य और असुर ................


अब आप सोचिए क्या बनना चाहते है
संसार में तीन प्रकार के पुरुष है - देव , मनुष्य और असुर 

इन तीन प्रकार के पुरुषो में - देवपुरुष श्रेष्ठ होता है , मनुष्य साधारण और असुर निकृष्ट होते है । 

देव वह है जो निर्दयी नहीं होते , दूसरों के कष्ट दूर करते है , वैदिक धर्म के पालन से उनका आत्मा उच्च हो जाता है और वेदो के ज्ञान को जानकर , वेदवर्णित ईश्वर की उपासना करके , यज्ञ करके वे देवता बन जाते है । 

असुर वे है जो अपने लाभ के सामने दूसरे के लाभ की परवाह नहीं करते। स्वार्थसिद्धि मे लगे रहते है और दूसरे की हानि करके अपना पेट भरते है। जैसे एक कसाई पशुओ को काटकर प्रसन्नता से बेचता है। यह कसाई का असुरपन है । ऐसे ही मनुष्य अपने स्वाद के लिए एक पक्षी की गर्दन मरोड़ देता है और निरीह पशुओ को मारकर खाता है, यह है उस मनुष्य का असुरपन । कोई एक जाति अपने त्योहारो के नाम पर लाखो बकरो आदि को काटकर खा जाति है ये है उस जाति का असुरपन । 

रावण के सीताहरण के समय कब सीता जी के कष्टो की परवाह की थी ? दुर्योधन ने भरी सभा मे द्रौपती को अपमानित करके अपने असुरपन का ही परिचय दिया था। दरअसल निर्दयता एक मानसिक रोग है , असुरपन का कारण है । 

अब आप सोचिए क्या बनना चाहते है ? देवपुरुष या साधारणमनुष्य या असुर 

हमारे वेदो की आज्ञा है कि -- पहले मनुष्य बनो , मतलब प्रेम दया परोपकार आदि गुणो को धारण करो , वेदो के ज्ञान को जानो और फिर उसका पालन करके देव बनो। 

प्रश्न :- मोक्ष किसे कहते हैं ? उत्तर :- वह अवस्था जिसमें मनुष्य तीनों प्रकार के दुखों से दीर्घकाल के लिये अत्यंत रहित हो जाता है । उसे मोक्ष कहा जाता है । .....


अविवेक कैसे होता है

प्रश्न :- मोक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर :- वह अवस्था जिसमें मनुष्य तीनों प्रकार के दुखों से दीर्घकाल के लिये अत्यंत रहित हो जाता है । उसे मोक्ष कहा जाता है । 

प्रश्न :- वे तीन प्रकार के दुख कौन से हैं ?
उत्तर :- वे दुख ये हैं :------ १) अध्यात्मिक २) आदिभौतिक ३) आदिदैविक 

प्रश्न :- आध्यात्मिक दुख किसे कहते हैं ?
उत्तर :- यह दो प्रकार का है १) आध्यात्मिक शरीर दुख २) आध्यात्मिक मानस दुख 
१) आध्यात्मिक शरीर दुख : जो दुख हमें शारीरिक कष्ट भोजन की विषमता,रोग,ज्वर,पीड़ा आदि के द्वारा होता है । उसे ही हम आध्यात्मिक शरीर दुख कहते हैं ।
२) आध्यात्मिक मान्सिक दुख : जो हमें मन की चंचलता, इन्द्रीयों की चंचलता, तनाव, आदि के द्वारा होता है । उसे हम आध्यात्मिक मान्सिक दुख कहते हैं ।

प्रश्न :- आदिभौतिक दुख किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जो दुख हमें बाहरी रूप से प्राप्त हो जैसे कि कोई हमारा अपमान कर दे, कुत्ता या साँप हमें काट ले, हमें कोई मारे पीटे गाली दे या फिर बाहरी तौर पर हमें कोई कष्ट या यात्ना दे ,उसे हम आदिभौतिक दुख कहते हैं । यानि कि जो भौतिक रूप से प्राप्त हुआ हो । 

प्रश्न :- आदिदैविक दुख किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जब कोई भुकम्प आये , बिजली घिरे, तुफान या और प्रकृतिक आपदा आये तो ये दुख जो इन आपदाओं से प्राप्त होते हैं उनको आदिदैविक दुख कहते हैं ।

प्रश्न :- यह तीनों दुख कैसे प्राप्त होते हैं ?
उत्तर :- अविवेक के द्वारा प्राप्त होते हैं । 

प्रश्न :- अविवेक क्या है ?
उत्तर :- जड़ प्रकृति और चेतन आत्मा के भेद का ज्ञान न होना ही अविवेक है ।

प्रश्न :- अविवेक का उपाय क्या है ?
उत्तर :- इसका उपाय विवेक है ।

प्रश्न :- विवेक क्या है ?
उत्तर :- जड़ और चेतन आत्मा के भेद का साक्षात ज्ञान ही विवेक है ।

प्रश्न :- अविवेक कैसे होता है ?
उत्तर :- जब आत्मा प्रकृति के सम्पर्क में आता है तब वह प्रकृति रूप हो जाता है , अपने आप को प्रकृति का भाग समझने लगता है । जैसे गहरे लाला रंग के फूल को स्फटिक मणि ( सफेद पत्थर ) के पास लाओ तो वह पत्थर भी लाल रूप हो कर दिखने लगता है , ठीक वैसे ही प्रकृति के सम्पर्क में आत्मा आता है तो प्रकृति का जड़त्व धर्म उसमें भासित सा होता है और यही अविवेक की अवस्था है कि मनुष्य अपने को प्राकृतिक शरीर ही समझता है आत्मा और शरीर में भेद नहीं जानता इसी को हम सांख्य भाषा में अविवेक कहते हैं । 

प्रश्न :- तो इस विवेक का उपाय क्या है ? 
उत्तर :- योगाभ्यास की रीति से मनुष्य के ज्ञान में जब वृद्धि होती जाती है तो यह स्वयं ही अनुभव होने लगता है कि आत्मा और प्रकृति भिन्न हैं । इसी को हम आत्म साक्षात्कार कहते हैं । जैसे लाल रंग के फूल को स्फटिक मणि के पास से हटाओगे तो उसका सफेद रंग स्पष्ट दिखने लगेगा ठीक वैसे ही जब आत्मिक ज्ञान की वृद्धि होती जाएगी तो ये प्राकृति की छाया आपके आत्मा से हटती जायेगी और आपको अपने अन्दर का चेतन तत्व स्पष्ट होता जाएगा । 

प्रश्न :- आपने बताया और हमने जान लिया कि आत्मा और प्रकृति अलग अलग हैं तो फिर मेरे दुख दूर क्यों नहीं हुए ? मुझे मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए था वो क्यों नहीं हुआ ?
उत्तर :- मेरे मीठा कह देने से क्या आपका मूँह मीठा हो जायेगा ! वह तब तक न होगा जब तक कि आप स्वयं मीठा न खा लें । वैसे ही जब तक योग विधि के द्वारा आप अभ्यास न करेंगे तब तक आपको विवेक प्राप्त न होगा । उसका अनुभव आपको योग की उच्च अवस्था में होगा । जहाँ क्रमानुसार अज्ञान हटता जायेगा ।और ज्ञान बढ़ता जाएगा । केवल शब्द ज्ञान से ही मोक्ष नहीं होता । 

प्रश्न :- तो यह बतायें कि प्रकृति सम्पर्क तो मृत्यु के उपरांत ही हटेगा तो क्या मर के मोक्ष मिलता है ?
उत्तर :- मौत को कभी हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने मोक्ष की संज्ञा नहीं दी है , हाँ यह प्रकृति का सम्पर्क हमारे साथ रहता है परंतु जब तक हम आत्मा को शरीर और शरीर को आत्मा समझते हैं तब तक प्रकृति हमारे सम्मुख भोग उपस्थित करके हमें व्यथित करती रहती है । पर मोक्ष की अवस्था सामान्य अवस्था से भिन्न इसी कारण है क्योंकि मोक्ष में हम प्रकृति के अधीन नहीं रहते हैं । प्रकृति तब तक हमारे लिये भोग सम्पादित करती है जब तक कि पूर्ण विवेक न हो जाये । पर विवेक हो जाने पर वो अपना कार्य वहीं बंद कर देती है । ऋषि के लिये वो केवल साधन के रूप रह जाती है , स्थित प्रज्ञ मुनि उसमें आकर्षित नहीं हो पाता ।

प्रश्न :- तो फिर क्या उस अवस्था में शरीर की मृत्यु हो जाती है ?
उत्तर:- नहीं ,जब तक जीवन है योगी उस शरीर में जीवन को भोगता है परंतु वह आगे आने वाले शारीरिक बंधनों से छूट जाता है । उसका पुनर्जन्म नहीं होता । जब वह उस शरीर को त्यागता है तो ईश्वर के आनंद में उसका आत्मा रमण करता है । 

Tuesday 29 April 2014

श्रीँकृष्णं शरणं मम बवासीर का मन्त्र द्वारा 100 प्रतिशत सफल उपचार बवासीर का मन्त्रोपचार भी है......


श्रीँकृष्णं शरणं मम
बवासीर का मन्त्र द्वारा 100 प्रतिशत सफल उपचार
बवासीर का मन्त्रोपचार भी है
तथा मेरी माता जी को काफी
समय से बवासीर
की पीड़ा थी और मैने इस
मंत्र का प्रयोग करवाया तो प्रथम दिन से ही 10
प्रतिशत आराम मिला और एक माह में बवासीर पूर्ण
स्वस्थ हो गयी।
इसके अलावा भी मैने और लोगों को बताया है
किसी ने भी यह
नहीं कहा कि मेरी बवासीर
मन्त्र पढ़ने के बाद भी ठीक
नहीं हुयी हां दो आलसियों ने मन्त्र
ही नहीं किया तथा यह कहा कि इससे
कोई ठीक थोड़े
ही होता होगा उनका तो क्या उपचार है?
आप या आपके संबधि के बवासीर हो तो यह मन्त्र
प्रयोग करवा कर भारतिय विज्ञान का चम्तकार देखें यह मन्त्र
खुनी और बादी दोनो बवासीर
पर काम करता है तथा यहां तक लिखा है कि कोई इसका लाख
बार जाप करले तो उसके वंश में
किसी को बवासीर
नहीं हो सकती है।यहां पर
बवासीर के
रोगी को तो खाली 21 बार रोज
ही जाप करना है।
रोज रात को पानी रखकर सोवे तथा सुबह उठकर इस
मन्त्र से 21 बार अभिमंत्रित करे तथा अभिमंत्रित करने के
पश्चात उससे गुदा को धोना है।यहां यह
भी प्रावधान है कि इस मन्त्र को जानने
वाला यदि बवासीर के रोगी को मन्त्र
नहीं बताएगा और
रोगी पीड़ा भुगत रहा है तो मन्त्र जानने
वाले को 12 ब्रहमहत्या का पाप लगता है।
बवासीर वालों से निवेदन है कि पहले दिन कोई लाभ
न भी हो तो भी भगवान पर विश्वास
रखकर सात दिन जरूर करें जरूर जरूर लाभ होगा एक माह लगातार
करने से कुछ रोगी तो इतने ठीक हो जाते
हैं कि जैसे उनको बवासीर
थी या नहीं यह मंत्र भगंदर पर
भी काम करता है।
मन्त्रः- ॐ
काका कता क्रोरी कर्ता ॐ कर्ता से होय
यरसना दश हंस प्रगटे
खुनी बादी बवासीर न होय
मन्त्र जानकर न बतावे तो द्वाद्वश ब्रहम हत्या का पाप होय
लाख पढ़े उसके वंश में न होय शब्द सांचा पिण्ड काचा फुरो मन्त्र
इश्वरो वाचा ।

"श्रीँकृष्णं शरणं मम:"

वह बड़ा चंचल है जब हिरण्यकश्यप ने क्रोधावेश मेँ स्तम्भ पर तलवार का प्रहार किया तब श्री नृसिँह भगवान "गुरु" "गुरु" बोलते हुए उस स्तम्भ से प्रकट हुए ...................


वह बड़ा चंचल है
जब हिरण्यकश्यप ने क्रोधावेश मेँ स्तम्भ पर तलवार का प्रहार किया तब श्री नृसिँह भगवान "गुरु" "गुरु" बोलते हुए उस स्तम्भ से प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप को अपनी गोद मे बिठाकर कहा कि यह न रात है न दिन , न धरती है न आकाश , न घर मेँ न बाहर , न अस्त्र है न शस्त्र बल्कि देहली पर अपने नाखून से चीर कर मार डाला ।
मनुष्य के दुःख कारण उसका देहाभिमान है । शरीर घर है , शरीर घर से रहने वाली जीभ देहली है , उसे न तो अन्दर कहा जा सकता है और न बाहर । यदि अभिमान को मारना है तो जीभ पर ठाकुरजी का नाम रखना चाहिए ।
नृसिँह भगवान "गुरु-गुरु" का उच्चारण करते हुए कहा कि गुरु के बिना भगवान के दर्शन शक्य नहीँ हैँ ।
हर प्रकार की साधना की जाए विवेक वैराग्य भी हो , षटसंपत्ति आदि भी होँ किन्तु जब तक किसी संत की , गुरु की कृपा नहीँ होती तब तक मन शुद्ध नहीँ हो पाता और भगवान की प्राप्ति भी नहीँ हो पाती । हम चाहे जितनी साधना करे किन्तु संत की कृपा होने पर ही मन हमेशा के लिए शुद्ध हो सकता है । मन तो बड़े बड़े साधुओँ को भी सताता है । वह बड़ा चंचल है । इसलिए मन शुद्धि के बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीँ हो सकता ।
मल विक्षेप , आवरण आदि से मन कलुषित और मलिन होता है । जिस प्रकार मलिन या चंचल जल मेँ प्रतिबिम्ब दिखाई नहीँ देता , उसी प्रकार मलिन , चंचल और आवरणयुक्त मन मेँ परमात्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई नहीँ देता । अतः किसी संत का , गुरु का आश्रय लेना चाहिए , । गुरु की कृपा के बिना हृदय शुद्ध नहीँ हो सकता । साधना करने पर भी गुरु की कृपा के बिना काम नहीँ बनेगा , मात्र साधन साधना से हृदय शुद्ध नहीँ हो सकता है । नृसिँह भगवान भी "गुरु-गुरु" कहते हुए यह सन्देश दिया कि सबसे पहले गुरु बनाओ क्योँकि गुरु की कृपा के बिना भगवान के दर्शन नहीँ हो सकता ।।

Monday 28 April 2014

Q. सरकारी कामों में हाथ डालता हूँ, पर काम नहीं बनता ? Q. Do you try to get involved in government works, but never get success?....


Q. सरकारी कामों में हाथ डालता हूँ, पर काम नहीं बनता ?
Q. Do you try to get involved in government works, but never get success?
Ans. राहु की वस्तुओं से परहेज रखें जैसे- काले-नीले रंग से, आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ करें, बंदरों को गुड़ खिलाते रहें, मंदिर से पैसा उठाकर लाल कपड़ें में बांधकर जेब में रखें, (तांबे का पैसा हो तो सही), हर सूर्या ग्रहण में 4 नारियल 400 ग्राम साबुत बादाम जल प्रवाह करें, जिन लोगों की पिता से नहीं बनती या जिनके पिता किसी काबिल नहीं होते हैं, सूर्य-राहु मध्यम मार्तंड यंत्र गले में पहनें।.....

Q. जो काम करता हूँ, पूरा नहीं होता ? Q. Whatever I do, remains incomplete?...


Q. जो काम करता हूँ, पूरा नहीं होता ?
Q. Whatever I do, remains incomplete?
Ans. 43 दिन गाय के घी का दीपक मंदिर में जलाएं, जमीन में पैदा हुई सब्जी धार्मिक स्थान में दें, सूर्या मध्यम मार्तंड यंत्र गले में धारण करें।
Ans :- Light the lamp with ghee made from cow's milk in a temple for 43 days, donate the vegetables which are produced below earth at a religious place. Wear Surya Madhyam Martand Yantra around the neck.

उसके लिए कुछ किया रात सॉकर गवा दी , दिन खा कर, बचपन खेलेने कूंदने में , जवानी भोग भोगने मे , बुढ़ापा रोगो मे । कोहिनूर जैसे मानव-जन्म को , कौड़ी के भाव गँवा दिया । मनुष्य की यही स्थिति है .....


उसके लिए कुछ किया
रात सॉकर गवा दी , दिन खा कर, बचपन खेलेने कूंदने में , जवानी भोग भोगने मे , बुढ़ापा रोगो मे । कोहिनूर जैसे मानव-जन्म को , कौड़ी के भाव गँवा दिया । मनुष्य की यही स्थिति है , उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया। आज हम जिसे जीवन कह रहे है , वो तो पल पल मृत्यु की ओर बढ़ रहा है । हम कहते है हमारे जीवन के तीस या चालीस वर्ष व्यतीत हो गए किन्तु ये तीस चालीस वर्ष तो हमारे जीवन से कम हो गये , हम निरंतर मृत्यु के निकट पहुचते जा रहे है। 

दूसरे के घर मे चोरी हो जाये, तो हम अपने दरवाजे जाचते है , कही हमारे यहा चोर न आ जाये, पर काल का फंदा आए दिन किसी को लटका के ले जाता है , और हम अपने कर्मो को अपने जीवन को नहीं जाचते? हम देखते है लोग जाते है कुछ साथ नहीं जाते, फिर भी हम निरंतर एकत्रित करने मे लगे रहते है । अगर हम जीवन की वास्तविकता को नहीं जान लेते , तो इन सब का क्या लाभ ? विवाह का , भोगो का, धन का , प्रेम का , सांसारिक पदार्थो का क्या लाभ ??

मृत्यु के बाद का भी तो कोई जीवन है न, उसके लिए कुछ किया ?? इसलिए जो भी आवश्यक है वो करो किन्तु साथ साथ इस जीवन के पश्चात का जो जीवन है, उसका भी सोचो । ये जीवन सत्य नहीं है , सत्य कुछ और है , उस सत्य को सदैव जानने हेतु प्रयत्नरत रहो ... जंगल मे जाने की जरूरत नहीं , साधु -संत बनना भी अनिवार्य नहीं , घर पर रहकर ही सदैव प्रयासरत रहना चाहिए.... 

कठोपनिषद मे आता है --- इह चेदशकद् बोद्धु प्राक् शरीरस्य विश्रस .......॥ 

यदि शरीर का पतन होने से पूर्व मनुष्य ने उस परमात्मा को नहीं जाना तो जीवात्मा को अनेक कल्पो तक विभिन्न योनियो एवं लोको मे भटकने को विवश होना पड़ता है । इसलिए जीवन के सत्य को जानो , धर्म को धारण करो और परमात्मा को जानो, उससे प्रेम करो , उसकी ओर कदम बढ़ाओ ।

उसे चमत्कारी परिणाम प्राप्त होते हैं।..... शास्त्रों के अनुसार धन संबंधी परेशानियों को दूर करने के लिए एक सटीक और रामबाण उपाय बताया है ...


उसे चमत्कारी परिणाम प्राप्त होते हैं।.....
शास्त्रों के अनुसार धन संबंधी परेशानियों को दूर करने के लिए एक सटीक और रामबाण उपाय बताया है दान करना। दान करने से सभी प्रकार के कष्ट आसानी से दूर हो जाते हैं। ज्योतिष के अनुसार अलग-अलग ग्रहों के दोषों को दूर करने के लिए अलग-अलग उपाय बताए गए हैं। यदि व्यक्ति राशि अनुसार सही वस्तुओं का दान करता है तो उसे चमत्कारी परिणाम प्राप्त होते हैं।
मेष- इस राशि का स्वामी मंगल है और ज्योतिष के अनुसार मंगल को ग्रहों का सेनापति बताया गया है। अत: मेष राशि के लोगों को मंगल से संबंधित चीजें जैसे जमीन, लालवस्त्र, सोना, तांबा, केसर, कस्तूरी का दान करना चाहिए।
क्या न करें : मेष राशि के लोगों को तेल, काले वस्त्र, काली गाय, लोहा, जूते-चप्पल, काले फूल का दान करने से बचना चाहिए।
वृषभ- जिन लोगों की राशि वृषभ है उन्हें चांदी, सफेद वस्त्र, घी, सोना तेल, काले वस्त्र, लोहा का दान करना चाहिए। वृष राशि का स्वामी शुक्र है।
क्या न करें: शुक्र के स्वामित्व वाली इस राशि के लोगों को मूंगा, जमीन, लालवस्त्र, लाल पुष्प, सोना, तांबा, केसर, कस्तूरी का दान करने से बचना चाहिए।
मिथुन- बुध ग्रह मिथुन राशि का स्वामी है। जो लोग मिथुन राशि के अंतर्गत आते हैं उन्हें कांसा, हरे वस्त्र, घी, पैसे, पन्ना, सोना, शंख, फल का दान करना चाहिए। इन चीजों के दान से आपके दुख-दर्द खत्म होने लगेंगे।
क्या न करें: मिथुन राशि के लोगों को चावल, शक्कर, हीरे, चंादी, मोती, सफेद वस्त्र, घी का दान करने से बचना चाहिए।
कर्क: इस राशि का स्वामी चंद्र है। ज्योतिष के अनुसार चंद्र को मन का देवता बताया है। कर्क राशि के लोगों के लिए सही वस्तुएं जैसे सफेद-लाल वस्त्र, चांदी, घी, शंख, सोना, तांबा, केसर, कस्तूरी का दान करना श्रेष्ठ रहता है।
क्या न करें: कर्क राशि के लोगों को तेल, काले वस्त्र, काली गाय, लोहा, जूते, काले फूल का दान करने से बचना चाहिए, यही अच्छा रहता है।
सिंह- सूर्य के स्वामित्व वाली एकमात्र राशि सिंह है। सिंह राशि के लोगों को घर, दुधारू गाय, लाल-सफेद वस्त्र, सोना, तांवा, केसर, मूगा, चांदी, घी, शंख, मोती का दान करना चाहिए।
क्या न करें: जिन लोगों की राशि सिंह है उन्हें तेल, काले वस्त्र व गाय, लोहा, 
जूते, काले फूल का दान करने से बचना चाहिए, यही अच्छा रहता है।
कन्या- कन्या राशि का स्वामी बुध है। जिन लोगों की राशि कन्या है उन्हें बुध से संबंधित वस्तुएं कांसा, हरे वस्त्र, घी, पैसा, पन्ना, सोना, शंख, फल का दान करना श्रेष्ठ रहता है।
क्या न करें: बुध के स्वामित्व वाली राशि कन्या के लोगों को चावल, शक्कर, हीरे, चांदी, मोती, सफेद वस्त्र का दान करने से बचना चाहिए।
तुला- जिन लोगों की राशि तुला है उन्हें हीरे, चांदी, मोती, सफेद-काले वस्त्र, घी, सोना, तेल, गाय, लोहा का दान करना चाहिए। यह वस्तुएं तुला राशि के स्वामी शुक्र से संबंधित हैं।
क्या न करें: तुला राशि के लोगों को मूंगा, जमीन, लाल वस्त्र, ताम्र, केसर, कस्तूरी का दान करने से बचना चाहिए।
वृश्चिक: मंगल के स्वामित्व वाली यह दूसरी राशि है। जिन लोगों की राशि वृश्चिक है उन्हें भूमि, लाल वस्त्र, सोना, तांबा, केसर, कस्तूरी का दान करना चाहिए, यह बहुत फायदेमंद रहता है।
क्या न करें: मंगल की इस राशि के लोगों को काले तिल, शस्त्र, लोहा, तेल, काले वस्त्र व गाय, लोहा, काले फूल का दान करने से बचना चाहिए।
धनु- धनु राशि के स्वामी देव गुरु बृहस्पति हैं। इस राशि के लोगों को गुरु ग्रह से संबंधित वस्तुएं जैसे पीली चीज, पुस्तक, भूमि, दुधारू गाय, लाल वस्त्र, तांबा, केसर, मूंगा का दान करना चाहिए विशेष फायदेमंद रहता है।
क्या न करें: इस राशि के लोगों को काली गाय, काले तिल, लोहा, तेल, काले वस्त्र, लोहा का दान करने से बचना चाहिए।
मकर- शनि ग्रह से संबंधित राशि है मकर। मकर राशि के लोगों को शनि की वस्तुएं जैसे तेल, तिल, नीले व काले वस्त्र, ऊनी वस्त्र, सोना, लोहा, कस्तूरी का दान करना खास फायदा देता है।
क्या न करें: इस राशि के लोगों को लाल वस्त्र, सोना, तांबा, केसर, सफेद वस्त्र, चांदी, घी, शंख का दान करने से बचना चाहिए।

कुंभ- शनि के स्वामित्व वाली यह दूसरी राशि है। जिन लोगों की राशि कुंभ हैं उन्हें शनि की चीजें जैसे तेल, तिल, नीले-काले वस्त्र, काली गाय, ऊनी वस्त्र, लोहा, कस्तूरी का दान करना चाहिए। इन चीजों के दान से शनि की विशेष कृपा प्राप्त होती है।
क्या न करें: कुंभ राशि के लोगों को मकान, दुधारू गाय, सफेद-लाल चंदन व वस्त्र, सोना, तांबा, चांदी, घी, शंख, दही का दान करने से बचना चाहिए।
मीन- इस राशि के स्वामी देवगुरु बृहस्पति हैं। अत: इन्हें गुरु ग्रह से संबंधित चीजें जैसे पीली चीज, पुस्तक, शहद, भूमि, दुधारू गाय, लाल चंदन, लाल वस्त्र, तांबा, केसर, मूंगा का दान करना चाहिए।
क्या न करें: इस राशि के लोगों को काली गाय, काले तिल, शस्त्र, लोहा, तेल, काले वस्त्र, लोहा, जूते-चप्पल, काले फूल का दान करने से बचना चाहिए। 

श्री शिव चालीसा श्री शिव चालीसा ।।दोहा।।...


श्री शिव चालीसा
श्री शिव चालीसा
।।दोहा।।
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥

जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥

॥दोहा॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करो चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥

गणेश जी के चरणों में अर्पण करे मेरे नजरिये से कुछ सरल उपाय जो आपकी जिंदगी में कारगर सिद्ध होगी........ ----------------------------


गणेश जी के चरणों में अर्पण करे
मेरे नजरिये से कुछ सरल उपाय जो आपकी जिंदगी में कारगर सिद्ध होगी........
--------------------------------------------------------------------------------
१)क्या आप दिन ब दिन ऋण के बोझ तले दबते जा रहे हे,इसी कारन आपका मन बोहोत उदास रहता हे तो एक उपाय करे ....सात सोमबार सफ़ेद तिल को बहते हुवे नदी या तालाब में प्रवाह कर दे ....

२)क्या आपको लगता हे की लाखो कौशिश करने के बाद भी आप लोगो का आदर नही पाते,लोग ताना मारते हे आप पर तो एक उपाय करे ....एक पान की पत्ते पर थोड़ा सा फिटकरी और सिंदूर बांधकर बुधवार की सुवह या शामको पीपल के पेड़ के निचे किसी बड़े पत्थर से दबा दे .....ये कार्य तिन बुधवार को करे

३)क्या आपको नौकरी नही मिल रही ,काफी दिनों से यहाँ वह काम के चक्कर में भटक रहे हे तो एक उपाय करे ....किसी भी गुरु वार के दिन (शुक्ल पक्ष)एक पीले वस्त्र पर अपनी अनामिका ऊँगली प्रोयोग करके केशर और सिंदूर की स्याही से ६३ नंबर लिख कर उसे माँ लक्ष्मी के चरणों पर अर्पण करदे.यह बिधि आपको शुक्ल पक्ष की तिन गुरु वार तक करना हे.....

४)क्या आपको लगता हे की किसी ने आप पर नजर लगाई हे और तब से आपका शरीर ठीक नही रहता तो एक उपाय करे ...शनिवार के दिन एक काले वस्त्र से उड़द दाल को बांधकर नदी में प्रवाह करदे ,नही तो शनि मंदिर पर चड़ा दे...(तिन शनि वार तक )

५)क्या आप बाहन लेने की सोच रहे हे पर कुछ हो नही पा रहा हे तो एक उपाय करे शुक्ल चतुर्थी के दिन भगवन गणेश जी को एक जोड़ा नारियल में अपने अनामिका ऊँगली का प्रोयोग करके केशर से स्वस्तिक का चिन्ह बनवाकर गणेश जी के चरणों में अर्पण करे और अपनी मनोकामनाए कहे .....यह कार्य आपको ४ शुक्ल चतुर्थी को करना

यह श्रीकृष्ण का सप्तदशाक्षर महामंत्र है। इस मंत्र का पांच लाख जाप करने से यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। ...... जिस व्यक्ति को यह मंत्र सिद्ध हो जाता है उसे करोड़पति होने से कोई नहीं रोक सकता।.....

ऊं श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा'<>यह श्रीकृष्ण का सप्तदशाक्षर महामंत्र है। इस मंत्र का पांच लाख जाप करने से यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। जप के समय हवन का दशांश अभिषेक का दशांश तर्पण तथा तर्पण का दशांश मार्जन करने का विधान शास्त्रों में वर्णित है। जिस व्यक्ति को यह मंत्र सिद्ध हो जाता है उसे करोड़पति होने से कोई नहीं रोक सकता।..............

Sunday 27 April 2014

वर्तमान समय में सुविधा जुटाना आसान है। परंतु शांति इतनी सहजता से नहीं प्राप्त होती। हमारे घर में सभी सुख-सुविधा का सामान है, परंतु शांति पाने के लिए हम तरस जाते हैं।.............


नजर नहीं लगती है।
वर्तमान समय में सुविधा जुटाना आसान है। परंतु शांति इतनी सहजता से नहीं प्राप्त होती। हमारे घर में सभी सुख-सुविधा का सामान है, परंतु शांति पाने के लिए हम तरस जाते हैं। वास्तु शास्त्र द्वारा घर में कुछ मामूली बदलाव कर समस्याओं को दूर कर आप घर एवं बाहर शांति का अनुभव कर सकते हैं। 
- घर के मुख्यद्वार के दोनों ओर पत्थर या धातु का एक-एक हाथी रखने से सौभाग्य में वृद्धि होती है।
- भवन में आपके नाम की प्लेट को बड़ी एवं चमकती हुई रखने से यश की वृद्धि होती है। 
- स्वर्गीय परिजनों के चित्र दक्षिणी दीवार पर लगाने से उनका आशीर्वाद मिलता रहता है। 
- विवाह योग्य कन्या को उत्तर-पश्चिम के कमरे में सुलाने से विवाह शीघ्र होता है।
-किसी भी दुकान या कार्यालय के सामने वाले द्वार पर एक काले कपडे में फिटकरी बांधकर लटकाने से बरकत होती है। धंधा अच्छा चलता है।
- दुकान के मुख्य द्वार के बीचों बीच नीबूं व हरी मिर्च लटकाने से नजर नहीं लगती है। 
- घर में स्वस्तिक का निशान बनाने से निगेटिव ऊर्जा का क्षय होता है
- किसी भी भवन में प्रात: एवं सायंकाल को शंख बजाने से ऋणायनों में कमी होती है।
- घर के उत्तर पूर्व में गंगा जल रखने से घर में सुख सम्पन्नता आती है। 
- पीपल की पूजा करने से श्री तथा यश की वृद्धि होती है। इसका स्पर्श मात्रा से शरीर में रोग प्रतिरोधक तत्वों की वृद्धि होती है। 
- घर में नित्य गोमूत्र का छिडकाव करने से सभी प्रकार के वास्तु दोषों से छुटकारा मिल जाता है। 
- मुख्य द्वार में आम, पीपल, अशोक के पत्तों का बंदनवार लगाने से वंशवृद्धि होती है। 

श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जिनके तीन मुख्य शिष्य हुए .....Radha Swami panth ki schaai...


जीवन चरित्र स्वामी जी महाराज

{नोट - शिव दयाल की पत्नी का नाम "राधा" था }

श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जिनके तीन मुख्य शिष्य हुए 

1. श्री जयमल सिंह (डेरा ब्यास)
2. जयगुरुदेव पंथ (मथुरा में) 
3. श्री तारा चंद (दिनोद जि. भिवानी) 

इनसे आगे निकलने वाले पंथ:- 

1. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> जयमल सिंह (डेरा ब्यास) -->श्री सावन सिंह --> श्री जगत सिंह 

2. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> जयगुरु देव पंथ (मथुरा में) 

3. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> श्री ताराचंद जी (दिनोद जि. भिवानी) 

4. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> जयमल सिंह (डेरा ब्यास) --> श्री सावन सिंह --> श्री खेमामल जी उर्फ शाह मस्ताना जी (डेरा सच्चा सौदा सिरसा) 

5. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> जयमल सिंह (डेरा ब्यास) --> श्री सावन सिंह --> श्री खेमामल जी उर्फ शाह मस्ताना जी (डेरा सच्चा सौदा सिरसा) --> श्री सतनाम सिंह जी (सिरसा) 

6. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> जयमल सिंह (डेरा ब्यास) --> श्री सावन सिंह --> श्री खेमामल जी उर्फ शाह मस्ताना जी (डेरा सच्चा सौदा सिरसा) --> श्री मनेजर साहेब (गांव जगमाल वाली में) 

7. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> जयमल सिंह (डेरा ब्यास) --> श्री सावन सिंह --> श्री कृपाल सिंह (सावन कृपाल मिशन दिल्ली) 

8. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) --> जयमल सिंह (डेरा ब्यास) --> श्री सावन सिंह --> श्री कृपाल सिंह (सावन कृपाल मिशन दिल्ली) --> श्री ठाकुर सिंह जी श्री जयमल सिंह जी ने दीक्षा प्राप्त की सन् 1856 में श्री शिवदयाल सिंह जी (राधा स्वामी) की मृत्यु सन् 1878 में 60 वर्ष की आयु में हुई। श्री जयमल सिंह जी सेना से सेवानिवृत हुए सन् 1889 में अर्थात् श्री शिवदयाल सिंह जी (राधा स्वामी) की मृत्यु के 11 वर्ष पश्चात् सेवानिवृत होकर 1889 में ब्यास नदी के किनारे डेरे की स्थापना करके स्वयंभू संत बनकर नाम दान करने लगे। यदि कोई कहे कि शिवदयाल सिंह जी ने बाबा जयमल सिंह को नाम दान करने को आदेश दिया था। यह उचित नहीं है क्योंकि यदि नाम दान देने का आदेश दिया होता तो श्री जयमल सिंह जी पहले से ही नाम दान प्रारम्भ कर देते। यहाँ पर यह भी याद रखना अनिवार्य है कि श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी) के कोई गुरु नहीं थे। श्री जयमल सिंह जी (डेरा ब्यास) ने जिस समय दीक्षा प्राप्त की सन् 1856 में उस समय श्री शिवयाल सिंह जी (राधा स्वामी) साधक (Under training) थे। श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी) संत 1861 में बने तब उन्होंने सत्संग प्रारम्भ किया था।

2. बाबा जयमल सिंह जी से उपदेश प्राप्त हुआ श्री सावन सिंह जी को तो श्री सावन सिंह उत्तराधिकारी हुए श्री जयमल सिंह जी के यानी डेरा बाबा जयमल सिंह (ब्यास) के ।

=> बाबा सावन सिंह जी के अनेकों शिष्य हुए। जिन में से दो अपने आपको बाबा जयमल सिंह के डेरे की गद्दी को प्राप्त करने के अधिकारी मानने लगे।

1. श्री खेमामल जी (शाहमस्ताना) जी 
2. श्री कृपाल सिंह

श्री सावन सिंह जी ने दोनों के टकराव को टालते हुए इन दोनों को बाईपास करके श्री जगत सिंह जी को बाबा जयमल सिंह (ब्यास) की गद्दी पर विराजमान कर दिया। उसके नाम वसीयत कर दी। इस घटना से क्षुब्ध होकर दोनों (श्री खेमामल जी तथा श्री कृपाल सिंह जी) बागी हो गए। श्री खेमामल जी ने स्वयंभू गुरू बनकर 2अप्रैल 1949 में सिरसा में सच्चा सौदा डेरा की स्थापना करके नाम दान करने लगे। 

=> श्री कृपाल सिंह जी ने दिल्ली में विजय नगर स्थान पर स्वयंभू गुरु बनकर नामदान करना प्रारम्भ कर दिया तथा ’’सावन-कृपाल मिशन’’ नाम से आश्रम बना कर रहने लगा।

श्री क पाल सिंह जी ने श्री दर्शन सिंह जी को उत्तराधिकार नियुक्त कर दिया। श्री ठाकुर सिंह जी अपने को सीनियर मानते थे। जो श्री कृपाल सिंह जी के शिष्यों में से एक थे। वांच्छित पद न मिलने से क्षुब्ध श्री ठाकुर सिंह जी ने स्वयंभू गुरु बनकर नाम दान करना प्रारम्भ कर दिया।

श्री जगत सिंह की मृत्यु लगभग तीन वर्ष पश्चात् ही क्षय रोग से हो गई थी। उसके पश्चात् श्री चरण सिंह जी जो श्री सावन सिंह जी के शिष्य थे तथा श्री जगत सिंह के गुरु भाई थे। डेरा ब्यास की गद्दी पर विराजमान हो गए। श्री चरण सिंह जी को नाम दान का आदेश प्राप्त नहीं था। कोई कहे कि श्री जगत सिंह ने आदेश दे दिया था। श्री चरण सिंह को यह उचित नहीं, क्योंकि गुरु भाई अपने गुरु भाई को नाम दान का आदेश नहीं दे सकता। एक कमाण्डर अपने बराबर के पद वाले कमाण्डर की पदोन्नति नहीं कर सकता।

श्री शिव दयाल सिंह के पंथ से श्री जैमल सिंह जी व उनसे बागी होकर श्री बग्गा सिंह ने तरणतारण में अलग डेरा बनाया जिनसे आगे श्री देवा सिंह जी से आगे तीन बागी पंथ चलाने वाले बन गये जो इस प्रकार हैं:-

1). श्री देवा सिंह --> श्री गुरवचन लाल डेरा ध्यानपुर जिला अमृतसर --> श्री कश्मीरा सिंह जी से एस. जी. एल. जन सेवा केन्द्र, गड़ा रोड़ जलंधर में पंथ चला ।

2). श्री देवा सिंह --> साधु सिंह, डेरा राधास्वामी, बस्ती बिलोचा, फिरोजपुर, पंजाब --> संत तेजा सिंह, बस्ती बिलोचा, फिरो जपुर, पंजाब।

A. श्री साधु सिंह जी --> श्री फकीरचंद जी ने होशियारपुर, पंजाब में बनाया ।

3). श्री देवा सिंह --> श्री बूटा सिंह, डेरा राधास्वामी, पंजग्राई कलां, जिला फरीदकोट, पंजाब --> श्री सेवा सिंह डेरा राधास्वामी, पंजग्राई कलां, जिला फरीदकोट, पंजाब।

A. श्री देवा सिंह --> दयाल सिंह, डेरा राधास्वामी, गिल रोड़, लुधियाना, पंजाब।
1). बग्गा सिंह तरनतारण --> दर्शन सिंह डेरा सतकरतार, नजदीक मोंडल टाउन, जलंधर, पंजाब।

सावन-कृपाल रूहानी मिशन में:-

1). श्री कृपाल सिंह --> श्री ठाकुर सिंह --> बलजीत सिंह, डेरा राधास्वामी, नया गांव, हिमाचल प्रदेश।

शिवदयाल सिंह = राय सालिगराम, डेरा दयाल बाग, आगरा, यू.पी. = हजूर सरकार साहिब = साहिब जी महाराज = महता जी महाराज = लाल साहिब जी महाराज = सतसंगी साहिब जी महाराज गद्दी नशीन।


शिवदयाल सिंह = राय सालिगराम = शिवब्रत लाल = फकीर चंद मानव मंदिर होशियारपुर, पंजाब = प्रो. ईश्वर चंद्र = रिटायर्ड डी. आई. जी. नेगी साहिब 

शिवदयाल सिंह = राय सालिगराम = शिवब्रत लाल = रामसिंह = ताराचंद, दिनोद, भिवानी, हरियाणा = मास्टर कंवर सिंह गद्दीनशीन 

शिवदयाल सिंह = राय सालिगराम = शिवब्रत लाल = रामसिंह = ताराचंद, दिनोद, भिवानी, हरियाणा = गांव अंटा जिला जींद। 

शिवदयाल सिंह = जैमल सिंह = बग्गा सिंह, तरनतारन, पंजाब = देवा सिंह तरनतारन = प्रताप सिंह तरनतारन = केहर सिंह, गद्दी नशीन तरनतारन।

शिवदयाल सिंह = जैमल सिंह = सावन सिंह = तेजा सिंह, गांव सैदपुर, जिजालंधर = रसीला राम = श्री प्यारालाल।

शिवदयाल सिंह = जैमल सिंह = सावन सिंह = देशराज, डेरा राधास्वामी ऋषिकेश, उत्तराखण्ड।

जयगुरुदेव पंथ से सम्बंधित:- 
शिवदयाल सिंह = गरीबदास = पंडित विष्णु दयाल = घूरेलाल = तुलसीदास जयगुरुदेव मथुरा गद्दीनशीन ।


डेरा सच्चा सौदा का इतिहास:-

डेरे की स्थापना 2 अप्रैल 1949 में श्री खेमामल जी (डेरा सच्चा सौदा के संस्थापक) की मृत्यु सन् 1960 में (ग्यारह वर्ष पश्चात्) इंजैक्शन रियैक्शन से हुई। प्रमाण पुस्तक ‘‘सतगुरु के परमार्थी करिश्मों का वृतान्त’’ (भाग-पहला) पृष्ठ 31,32 पर वे किसी को उत्तराधिकार नियुक्त नहीं कर सके। उसके दो शिष्य गद्दी के दावेदार थे। 
1. श्री सतनाम सिंह जी तथा 
2.मनेजर साहब। 
संगत ने कई दिन तक मीटिंग करके श्री सतनाम सिंह जी को डेरा सच्चा सौदा सिरसा की गद्दी पर विराजमान कर दिया। मनेजर साहेब ने क्षुब्ध होकर गाँव-जगमाल वाली में स्वयं ही डेरा बनाकर नाम दान प्रारम्भ कर दिया। डेरा सच्चा सौदा सिरसा से प्रकाशित पुस्तक ‘‘सतगुरु के परमार्थी करिश्मों के वृतान्त (पहला भाग) प ष्ठ – 56 पर लिखा है कि श्री शाहमस्ताना जी (जो इंजैक्शन रियैक्शन से मृत्यु को प्राप्त हुआ था। प्रमाण पृष्ठ 31 पर) ही श्री गुरमीत सिंह जी के रूप में जन्में हैं। जो वर्तमान में डेरा सच्चा सौदा सिरसा के गद्दीनसीन हैं।

विचार करें:- श्री शाहमस्ताना जी का भी पुनर्जन्म हुआ है तो मोक्ष नहीं हुआ। यह कहें कि हंसों को तारने के लिए आए हैं। वह भी उचित नहीं। क्योंकि इनकी साधना शास्त्राविरूद्ध है तथा श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में प्रमाण है कि तत्वदर्शी संत से ज्ञान प्राप्त करके सत्य साधना करने वाले साधक परमेश्वर के उस परम धाम को प्राप्त हो जाते हैं, जहां जाने के पश्चात् फिर लौटकर कभी संसार में नहीं आते। इससे सिद्ध हुआ कि श्री शाहमस्ताना जी का मोक्ष नहीं हुआ। हो सकता है उस पुण्यात्मा की कुछ भक्ति कमाई बची हो उसको अब राज सुख भोग कर नष्ट कर जाएगा। भक्तों को तारने की बजाय उनका जीवन नाश कर जायेंगे।

जिज्ञासु पुण्य आत्माओ ! यह राधास्वामी पंथ, डेरा सच्चा सौदा सिरसा तथा सच्चा सौदा जगमाल वाली, गंगवा गांव में भी श्री खेमामल जी के बागी शिष्य छः सो मस्ताना ने डेरा बना रखा हैं तथा जय गुरूदेव पंथ मथुरा वाला तथा श्री तारा चन्द जी का दिनौंद गाँव वाला राधास्वामी डेरा तथा डेरा बाबा जयमल सिंह ब्यास वाला तथा कृपाल सिंह व ठाकुर सिंह वाला राधास्वामी पंथ सबका सब गोलमाल है।

जिज्ञासु आत्माओ ! यह काल का फैलाया हुआ जाल है। इस से बचो तथा पूर्णसन्त जगत गुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के पास आकर नाम दान लो तथा अपना कल्याण कराओं ।

राधास्वामी पंथ, जयगुरूदेव पंथ तथा सच्चा सौदा सिरसा व जगमाल वाली पंथों में श्री शिवदयाल सिंह के विचारों को आधार बना कर सत्संग सुनाया जाता हैं। श्री शिवदयाल सिंह जी इन्हीं पांच नामों (ररंकार, औंकार, ज्योति निरंजन, सोहं तथा सतनाम) का जाप करते थे। वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके और प्रेत योनी को प्राप्त होकर अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश होकर अपने शिष्यों की शंका का समाधान करते थे। जिस पंथ का प्रर्वतक ही अधोगति को प्राप्त हुआ हो तो अनुयाइयों का क्या बनेगा? सीधा सा उत्तर है, वही जो राधास्वामी पंथ के मुखिया श्री शिवदयाल सिंह राधास्वामी का हुआ। देखें फोटो कापी (timeline photos 79 & 80 पेज के है यदि 78 और 81 वे पेज के फोटो देखने हो तो बतावे मैं उन्हें भी पोस्ट कर दूंगा !) ‘‘जीवन चरित्र स्वामी जी महाराज’’ के पृष्ठ 78 से 81 तक ।

‘‘यह उपरोक्त जन्मपत्री राधास्वामी पंथ तथा उसकी शाखाओं की है ‘’ 

समझदार को संकेत ही बहुत होता है ।

Saturday 26 April 2014

वह कौन है जो पापरहित है ? वह कौन है जो बुढ़ापे से रहित है , उसे कोई रोग नहीं होता? कौन है वह ,जो मृत्युरहित, शोकहींन और भूख प्यास से भी रहित है ? ....


वह कौन है जो पापरहित है
वह कौन है जो पापरहित है ? वह कौन है जो बुढ़ापे से रहित है , उसे कोई रोग नहीं होता? कौन है वह ,जो मृत्युरहित, शोकहींन और भूख प्यास से भी रहित है ? उसे खोजना चाहिए, क्यो कि एक स्वर मे सभी शास्त्र एवं महापुरुष कहते है कि -- "जो भी इसे खोजकर जान लेता है, वह सब लोको को और समस्त कामनाओ को प्राप्त हो जाता है " । 

और खोजने योग्य वह तत्व ईश्वर ही है , जिसमे हम मनुष्यो के समान कोई विकार नहीं है , वह निर्विकार है । वह जन्म नहीं लेता उसका कोई रूप नहीं है , वह निराकार है। वह सत्यकाम और सत्यसंकल्प , इन आठ स्वभावगत गुणो से युक्त है। वह एक ही है , अतः उसकी ही उपासना करनी चाहिए, इस एक ईश्वर को छोडकर भिन्न की उपासना करने वाला जन्म-जन्मांतर तक भटकता हुआ दुख और कष्ट भोगता है ...................

एक प्रसिद्द वेश्यालय था, जो किसी मंदिर के सामने ही स्थित था. वेश्यालय में नित्य प्रति गायन-वादन-नृत्य आदि होता रहता था, जो की वह वेश्या अपने ग्राहकों की प्रसन्नता के लिए प्रस्तुत करती थी


पहला कर्त्तव्य हैं, कि वह मन को नियंत्रित करें
जा की रही भावना जैसी.........

एक प्रसिद्द वेश्यालय था, जो किसी मंदिर के सामने ही स्थित था. वेश्यालय में नित्य प्रति गायन-वादन-नृत्य आदि होता रहता था, जो की वह वेश्या अपने ग्राहकों की प्रसन्नता के लिए प्रस्तुत करती थी और बदले में बहुत सारा धन व कीमती उपहार उनसे प्राप्त करती थी. इस प्रकार उसकी समस्त भौतिक इच्छाएं तो पूर्ण थी, लेकिन कठोर मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था और
उसे वहां पूजा-पाठ आदि करने की अनुमति नहीं थी. वेश्यालय में तो उसे ग्राहकों से ही फुर्सत नहीं थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन व मंदिर में स्थापित देव मूर्ति का दर्शन कर ले और धीरे-धीरे समय के साथ उसकी यह इच्छा एक प्रकार की व्याकुलता में बदल गयी. जब मंदिर में आरती के समय बजने वाली घंटियों की आवाज उसके कानों में पड़ती, तो वह अत्यंत व्यग्र हो उठती, उसका हृदय रूदन कर उठता और भगवान् दर्शन की उत्कंठा उसके नेत्रों से बरसने लगती.

वेश्या के गायन-नृत्य आदि की स्वर लहरिया मंदिर तक भी पहुंचती थी. मंदिर का पुजारी कभी तो अत्यंत क्रोधित होता, कि उस नीच कर्मों में रत स्त्री की आवाज़ से मंदिर के वातावरण की पवित्रता में विघ्न उपस्थित हो रहा हैं और कभी वासना के वशीभूत उसी वेश्या के आगोश में पहुँच कर उसके रूप-रस का पान करने की कल्पना में डूब जाता, लेकिन सामाजिक मर्यादा के कारण ऐसा संभव नहीं था.

संयोगवश उस वेश्या और पुजारी, दोनों की मृत्यु एक ही समय हुयी. यमराज उस पुजारी को नरक के द्वार पर छोड़ कर वेश्या को स्वर्ग की और ले जाने लगे.

पुजारी को इस पर बहुत क्रोध आया और उसने यमराज से पूछा – “मैं जीवन भर मंदिर में देव मूर्तियों का पूजन करता रहा, फिर भी मुझे नरक में जगह दी जा रही हैं और यह वेश्या जीवन भर पाप कर्मों में लिप्त रही, फिर भी इसे स्वर्ग ले जाया जा रहा हैं. ऐसा क्यों?”

यमराज ने उत्तर दिया – “देव मूर्तियों की पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा इस वेश्या में ही लगा रहा, जबकि पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देव मूर्ति में ही लगा रहा. यही वजह हैं, कि इसे स्वर्ग मिल रहा हैं और तुम्हें नरक.”

वस्तुतः कर्म के साथ विचारों का भी जीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं. जब तक चित्त वेश्यागामी रहेगा (अर्थात भौतिक भोगों में लिप्त रहेगा), तब तक देव पूजन, जप, साधना आदि के उपरांत भी स्वर्ग (अर्थात देवत्व. श्रेष्ठता, सफलता, पूर्णता) की प्राप्ति संभव नहीं हैं.

किसी साधना आदि में असफलता प्राप्त होने के पीछे कारण ही यही होता हैं, कि कहीं न कहीं उसके विश्वास, श्रद्धा, समर्पण आदि में न्यूनता रहती हैं एवं चित्त साधनात्मक चिंतन से न्यून हो कर भोगेच्छाओं में लिप्त होता हैं.

अतः साधक का यह पहला कर्त्तव्य हैं, कि वह मन को नियंत्रित करें, तभी श्रेष्ठता की और अग्रसर होने की क्रिया संभव हो पायेगी.

आत्मा के सिवाए ओर कोई बर्ह्म हो ही नहीं सकता कियूं की यदि बर्ह्म सूर्य है .................


बर्ह्म को जानने के लिए बर्ह्म ही होना पड़ता है
बर्ह्म को जानने के लिए बर्ह्म ही होना पड़ता है ओर आत्मा के सिवाए ओर कोई बर्ह्म हो ही नहीं सकता कियूं की यदि बर्ह्म सूर्य है तो आत्मा एक किरण है यदि बर्ह्म सागर है तो आत्मा उसकी एक बूँद है ओर बूँद बिना सागर के रह नहीं सकती चलती ही रहती है पर्वत् से के बूँद चली ओर बूँदों के साथ मिल कर नली का रूप हुई फिर नाला बना ओर फिर नदी नदी से दरिया बना ओर दरिया सागर मैं मिल कर रह गया ओर सागरहो गया बाकी की बूँदें तालाब बाते छपड़ बने कुछ धरती मैं समा गये पीछे छूट गये......

अन्त में मौत का आना...... आत्मा अमर है वह कभी मरती नही है हम अपनी आयु उपरान्त अपना शरीर त्याग देते है ...............


अन्त में मौत का आना......
आत्मा अमर है वह कभी मरती नही है हम अपनी आयु उपरान्त अपना शरीर त्याग देते है और अपने कर्मो के अनुसार दुसरी योनी में प्रवेश करते है इसी क्रिया को शरीर छोडना बोलते है ।
शास्त्रों में कई ऐसे प्रमाण मिलते है जिनमें उल्लेख किया गया है कि मनुष्य जीवन में मौत एक अटल सत्य है जिसे झुठलाया नही जा सकता है । और आत्मा अमर ही वह मृत्यु पश्चात शरीर का त्याग कर देती है ।
आज जो हमारा शरीर है वह कुछ ही वर्ष पश्चात बिलकुल बदल चुका होता है बाल्यावस्था में हमारे कोमल अंग, सुरीली आवाज, मासुमियता जवानी के समय बदली सी नजर आती है आवाज में भारीपन, अन्गों का कठोर होना, इत्यादि बदलाव समय के साथ आना कोई नई बात नही । बुढापा फिर अन्त में मौत का आना यह सब हमारे शरीरिक परिवर्तन है, लेकिन बाल्यावस्था के समय हमारी आत्मा जो थी वही बुढापे में भी होती है यहाँ तक कि मृत्यु के अतिम क्षण तक हमारी आत्मा में कोई परिवर्तन नही आता है । भगवानकृष्ण ने गीता में आत्मा की अमरता के बारे में उल्लेख किया -
"बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।"
चौथे अध्याय में भगवन अर्जुन से कहते है - हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके है । उन सब को तु नही जानता, परन्तु मैं जानता हुँ ।
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्माति नरोअपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।" (२।२२गीता)
मनुष्य जैसे पुराने वस्त्र का त्याग कर नवीन वस्त्रो को ग्रहण करता है, उसी तरह जीवात्मा पुराने शरीर का त्याग कर दूसरे नवीन शरीर को ग्रहण करती है

Friday 25 April 2014

आवागवन के बंधन में जकड़ने के लिए मजबूर हो जाएगे देहधारी को दंड है बच सके न कोय | ज्ञानी भोगे ज्ञान से अज्ञानी भोगे रोय || ...........


आवागवन के बंधन में जकड़ने के लिए मजबूर हो जाएगे
देहधारी को दंड है बच सके न कोय |

ज्ञानी भोगे ज्ञान से अज्ञानी भोगे रोय ||

भौतिक जगत में दुःख तो सभी को भोगने पड़ते हैं | चाहे कोई सांसारिक व्यक्ति है या संत महापुर्श | जिस प्रकार बच्चा डाक्टर से डरता है | डाक्टर के नाम से रोने लगता है | टीका लगवाने की बात सुनकर ही रोने लगता है क्यों की अज्ञानी है | वह जानता नहीं है की टीका लगवाने से स्वयं का ही लाभ होगा | लेकिन बुद्धिमान मनुष्य जो की डाक्टर के पास जाता है | उस से अपनी बीमारी स्पष्ट कहता है | डाक्टर टीका लगाता है | वह व्यक्ति फीस प्रदान करता हुआ उसका धन्वाद करता हुआ और प्रसन्न चित्त घर आ जाता है क्यों की ज्ञानी है | जानता है कि डाक्टर ने किस प्रकार मेरी भलाई चाहते हुए रोग का इलाज किया |

ठीक इसी प्रकार संसार में सुख-दुःख सभी पर आते हैं चाहे कोई संत है या सांसारिक व्यक्ति | परन्तु सांसारिक व्यक्ति दुःख मिलने पर रोता है,जब कि संत दुःख की चिन्ता नहीं करते | वह हँसते - हँसतें दुखों को भोग जाते हैं क्यों की वह बालक के सामान अज्ञानी नहीं है,वरन ज्ञान से जुड़े होने के कारण जानते हैं कि कर्मो का फल तो भोगना ही पड़ेगा | केवल ज्ञान की अग्नि ही ऐसी अग्नि है जो कर्म के बीज का नाश कर देती है |इस लिए यदि जीवन में सुख एवं शांति की प्राप्ति करना कहते हैं तो हमें जरूरत है कि पूर्ण सतगुरु की शरण में पहुँच कर आतमज्ञान को प्राप्त करें | तभी हम जीवन को सुखमय बना सकते हैं | यदि हम बुद्धि के द्वारा ही कर्मों का इलाज करते रहे ,तो केवल कर्मों के बन्धनों को बढाने के अतिरिक्त अन्य किसी सफलता की प्राप्ति नहीं कर सकते | अंतत जन्म - मरण के भयानक आवागवन के बंधन में जकड़ने के लिए मजबूर हो जाएगे |

हर समस्या का रामबाण उपाय इसे कहते हैं हर समस्या का रामबाण उपाय -- गोमती चक्र के अचूक प्रयोग और परेशानी खत्म========================== =====


हर समस्या का रामबाण उपाय
इसे कहते हैं हर समस्या का रामबाण उपाय --
गोमती चक्र के अचूक प्रयोग और
परेशानी खत्म==========================
=====
गोमती चक्र समुन्द्र से प्राप्त एक दुर्लभ और
चमत्कारी तंत्रोक्त वास्तु है जो कि मनुष्य के
जीवन में आने वाली हर कठिनाई को दूर करने
में सक्षम है. और जिसका उपयोग धन समृद्धि से सम्बंधित साधनाओ
में अक्सर किया जाता है. ..
परेशानी जीवन का दूसरा नाम है। मनुष्य के
जीवन में आए दिन
परेशानियां आती रहती है। कुछ समस्याएं
तुरंत हल हो जाती हैं तो कुछ लंबे समय तक कष्ट
देती हैं। कुछ साधारण तांत्रिक उपाय कर इन परेशानियों से
छुटकारा मिल सकता है। गोमती चक्र के कुछ साधारण
तांत्रिक उपाय नीचे लिखे हैं इन्हें करने से अनेक
परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।
गोमती चक्र एक ऐसा पत्थर है
तो गोमती नदी में मिलता है। इसका उपयोग
तंत्र क्रियाओं में विशेष तौर पर किया जाता है।
उपाय
=======================
1- व्यापार वृद्धि के लिए दो गोमती चक्र लेकर उन्हें एक
कपड़े में बांधकर ऊपर चौखट पर लटका दें और ग्राहक उसके
नीचे से निकले तो निश्चय ही व्यापार में
वृद्धि होती है।
२- पुत्र प्राप्ति के लिए पांच गोमती चक्र लेकर
किसी नदी या तालाब में
हिलि हिलि मिलि मिलि चिलि चिलि हुक पांच बोलकर विसर्जित करें, पुत्र
प्राप्ति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
3- पेट संबंधी रोग होने पर 10 गोमती चक्र
लेकर रात को पानी में डाल दें तथा सुबह उस
पानी को पी लें। इससे पेट संबंध के विभिन्न
रोग दूर हो जाते हैं।
4- यदि बार-बार गर्भ गिर रहा हो तो दो गोमती चक्र लाल
कपड़े में बांधकर कमर में बांध दें तो गर्भ गिरना बंद हो जाता है।
5- यदि कोई कचहरी जाते समय घर के बाहर
गोमती चक्र रखकर उस पर दाहिना पांव रखकर जाए
तो उस दिन कोर्ट-कचहरी में सफलता प्राप्त
होती है।
6- यदि शत्रु बढ़ गए हों तो जितने अक्षर का शत्रु का नाम है उतने
गोमती चक्र लेकर उस पर शत्रु का नाम लिखकर उन्हें
जमीन में गाड़ दें तो शत्रु परास्त हो जाएंगे।
7- सर्वसिद्धि योग तथा रविपुष्य योग पर इनकी पूजा करने
से घर में सुख-शांति बनी रहती है।
8-यदि पति-पत्नी में मतभेद हो तो तीन
गोमती चक्र लेकर घर के दक्षिण में हलूं बलजाद
कहकर फेंद दें, मतभेद समाप्त हो जाएगा।
9- प्रमोशन नहीं हो रहा हो तो एक
गोमती चक्र लेकर शिव मंदिर में शिवलिंग पर चढ़ा दें और
सच्चे ह्रदय से प्रार्थना करें। निश्चय ही प्रमोशन के
रास्ते खुल जाएंगे।
10- व्यापार वृद्धि के लिए दो गोमती चक्र लेकर उसे
बांधकर ऊपर चौखट पर लटका दें और ग्राहक उसके
नीचे से निकले तो निश्चय ही व्यापार में
वृद्धि होती है।
11- यदि गोमती चक्र को लाल सिंदूर के
डिब्बी में घर में रखें तो घर में सुख-
शांति बनी रहती है।
12- धन लाभ के लिए 11 गोमती चक्र अपने पूजा स्थान
में रखें। उनके सामने श्री नम: का जप करें। इससे आप
जो भी कार्य या व्यवसाय करते हैं उसमें बरकत
होगी और आमदनी बढऩे
लगेगी।
13-
गोमती चक्रों को यदि चांदी अथवा किसी अन्य
धातु की डिब्बी में सिंदूर तथा चावल डालकर
रखें तो ये शीघ्र शुभ फल देते हैं।
सात गोमती चक्रों को शुक्ल पक्ष के प्रथम
अथवा दीपावली पर लाल वस्त्र में अभिमंत्रित
कर पोटली बना कर धन स्थान पर रखें ।
14. यदि आपको अचानक आर्थिक हानि होती हो,
तो किसी भी मास के प्रथम सोमवार को २१
अभिमन्त्रित गोमती चक्रों को पीले अथवा लाल
रेशमी वस्त्र में बांधकर धन रखने के स्थान पर रखकर
हल्दी से तिलक करें । फिर
मां लक्ष्मी का स्मरण करते हुए उस
पोटली को लेकर सारे घर में घूमते हुए घर के बाहर
आकर किसी निकट के मन्दिर में रख दें ।
15. यदि आपके परिवार में खर्च अधिक होता है, भले
ही वह किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए
ही क्यों न हो, तो शुक्रवार को २१ अभिमन्त्रित
गोमती चक्र लेकर पीले या लाल वस्त्र पर
स्थान देकर धूप-दीप से पूजा करें । अगले दिन उनमें से
चार गोमती चक्र उठाकर घर के चारों कोनों में एक-एक गाड़
दें । १३ चक्रों को लाल वस्त्र में बांधकर धन रखने के स्थान पर रख
दें और शेष किसी मन्दिर में
अपनी समस्या निवेदन के साथ प्रभु को अर्पित कर दें ।
16. यदि आप अधिक आर्थिक समृद्धि के इच्छुक हैं, तो अभिमंत्रित
गोमती चक्र और
काली हल्दी को पीले कपड़े में
बांधकर धन रखने के स्थान पर रखें ।
17. यदि आपके गुप्त शत्रु अधिक
हों अथवा किसी व्यक्ति की काली नज़र
आपके व्यवसाय पर लग गई हो, तो २१ अभिमंत्रित
गोमती चक्रों व तीन लघु नारियल को पूजा के
बाद पीले वस्त्र में बांधकर मुख्य द्वारे पर लटका दें ।
18. यदि आपको नजर जल्दी लगती हो,
तो पाँच गोमती चक्र लेकर किसी सुनसान स्थान
पर जायें । फिर तीन चक्रों को अपने ऊपर से सात बार
उसारकर अपने पीछे फेंक दें तथा पीछे देखे
बिना वापस आ जायें । बाकी बचे
दो चक्रों को तीव्र प्रवाह के जल में
प्रवाहीत कर दें ।
19. यदि आप कितनी भी मेहनत क्यों न
करें, परन्तु आर्थिक समृद्धि आपसे दूर रहती हो और
आप आर्थिक स्थिति से संतुष्ट न होते हों, तो शुक्ल पक्ष के
प्रथम गुरुवार को २१ अभिमंत्रित गोमती चक्र लेकर घर के
पूजा स्थल में मां लक्ष्मी व श्री विष्णु
की तस्वीर के समक्ष पीले
रेशमी वस्त्र पर स्थान दें । फिर रोली से
तिलक कर प्रभु से अपने निवास में स्थायी वास करने
का निवेदन तथा समृद्धि के लिए प्रार्थना करके
हल्दी की माला से “ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय” मंत्र की तीन माला जप करें । इस
प्रकार सवा महीने जप करने के बाद अन्तिम दिन
किसी वृद्ध तथा ९ वर्ष से कम आयु की एक
बच्ची को भोजन करवाकर दक्षिणा देकर विदा करें ।
20. यदि आपके बच्चे अथवा परिवार के किसी सदस्य
को जल्दी-जल्दी नजर
लगती हो, तो आप शुक्ल पक्ष
की प्रथमा तिथि को ११ अभिमंत्रित
गोमती चक्र को घर के पूजा स्थल में
मां दुर्गा की तस्वीर के आगे लाल या हरे
रेशमी वस्त्र पर स्थान दें । फिर
रोली आदि से तिलक करके नियमित रुप से मां दुर्गा को ५
अगरबत्ती अर्पित करें । अब मां दुर्गा का कोई
भी मंत्र जप करें । जप के बाद
अगरबत्ती के भभूत से
सभी गोमती चक्रों पर तिलक करें ।
नवमी को तीन चक्र पीड़ित पर
से उसारकर दक्षिण दिशा में फेंक दें और एक चक्र को हरे वस्त्र में
बांधकर ताबीज का रुप देकर
मां दुर्गा की तस्वीर के चरणों से स्पर्श
करवाकर पीड़ित के गले में डाल दें । बाकि बचे
सभी चक्रों को पीड़ित के पुराने धुले हुए
वस्त्र में बांधकर अलमारी में रख दें ।
21 यदि किसी का स्वास्थ्य अधिक खराब
रहता हो अथवा जल्दी-जल्दी अस्वस्थ
होता हो, तो चतुर्दशी को ११ अभिमंत्रित
गोमती चक्रों को सफेद रेशमी वस्त्र पर
रखकर सफेद चन्दन से तिलक करें । फिर भगवान् मृत्युंजय से अपने
स्वास्थ्य रक्षा का निवेदन करें और यथा शक्ति महामृत्युंजय मंत्र
का जप करें । पाठ के बाद छह चक्र उठाकर
किसी निर्जन स्थान पर जाकर तीन
चक्रों को अपने ऊपर से उसारकर अपने पीछे फेंक दें
और पीछे देखे बिना वापस आ जायें । बाकि बचे
तीन चक्रों को किसी शिव मन्दिर में भगवान्
शिव का स्मरण करते हुए शिवलिंग पर अर्पित कर दें और प्रणाम
करके घर आ जायें । घर आकर चार चक्रों को चांदी के तार
में बांधकर अपने पंलग के चारों पायों पर बांध दें तथा शेष बचे एक
को ताबीज का रुप देकर गले में धारण करें ।
22.यदि आपका बच्चा अधिक डरता हो, तो शुक्ल पक्ष के प्रथम
मंगलवार को हनुमान् जी के मन्दिर में जाकर एक
अभिमंत्रित गोमती चक्र पर
श्री हनुमानजी के दाएं कंधे के सिन्दूर से
तिलक करके प्रभु के चरणों में रख दें और एक बार
श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें । फिर चक्र
उठाकर लाल कपड़े में बांधकर बच्चे के गले में डाल दें ।
23.यदि व्यवसाय में किसी कारण से आपका व्यवसाय
लाभदायक स्थिति में नहीं हो, तो शुक्ल पक्ष के प्रथम
गुरुवार को ३ गोमती चक्त, ३ कौड़ी व ३
हल्दी की गांठ को अभिमंत्रित कर
किसी पीले कपड़े में बांधकर धन-स्थान पर
रखें ।